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________________ १८८ अष्टमो लम्बः । ____ अन्वयार्थः-(हे भद्र !) हे भद्र ! (अहं) मैं (सागरदत्तः) सागरदत्त नामका वैश्य हूं और (एषः) यह (ममालयः) मेरा घर (भवति) है और (कमलोद्भूता) कमला नामकी मेरी स्त्रीसे उत्पन्न (विमला) विमला नामकी मेरी (सुता) पुत्री है (साच) और वह पुत्री भी (सूत्या अभवत्) जवान हो गई है ॥ ६९ ॥ रत्नजालमविक्री विक्रीयेत यदागमे । भाविज्ञास्तं पति तस्याः समुत्पत्तावजीगणन् ॥७०॥ ___अन्वयार्थः-(भाविज्ञाः) ज्योतिष शास्त्रोंके जाननेवालोंने (तस्याः) उसका (समुत्पत्तौ) उत्पत्तिके समयमें "(यदागमे) जिसके आने पर (अविक्रीत) नहीं विका हुआ ,रत्ननालं) रत्नोंका समूह (विक्रीयेत) बिक जायगा" (तं) उसको (पति) इसका पति (अनीगणन् ) गणना की ॥ ७० ॥ भवत्यत्र पविष्टे च दृष्टमेतदलं परैः। भाग्याधिक भवानेव योग्यः परिणयेदिति ।।७।। ____ अन्वयार्थः-और (भवति) आपके (अत्र पविष्ट) यहां प्रवेश करने पर (एतद् दृष्टं च यह सब देखा गया है । ( परैः अलं) और ज्यादा कहनेसे क्या ? अतएव (हे भाग्याधिक ! ) हे महाभाग्य ( योग्यः ) योग्य ( भवान् ) आप ही ( परिणयेत् ) इस कन्याके साथ व्याह करें । इति, इस प्रकार उसने कहा ।। ७१।। तन्निबन्धादयं चाभूदनुमन्ता तथाविधौ। वाञ्छितार्थेऽपि कार्य वशिनां न हि दृश्यते ॥७२॥ अन्वयार्थः- (अयं) इन जीवंधर कुमारने (तन्निबंधात्)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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