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नवमो लम्बः ।
अन्वयार्थः - (अयं ) इन जीवंधरकुमारने (तद्वाक्यात्) उस बुद्धिषेण विदूषक के तानरूप बचनों से ( मानिनीम् तां ) मान करने वाली उस सुरमञ्जरीको (उद्बोढुं) व्याहनेके लिये (अवाञ्छीत्) इच्छा की । अत्र नितिः ! (हि) निश्चय से (हेतुच्छ लोपलम्भेन) किसी वहाने के मिलजानेसे (दुराग्रहः ) मनुष्यों का दुराग्रह (जृम्भते) बढ़ जाता है ॥ ६ ॥
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तत्राप्यौपयिकं भूयो यक्षमन्त्रं व्यचीचरत् । अनपायादुपायाडि वाञ्छिताप्तिर्मनीषिणाम् ॥७॥ अन्वयार्थः - (भूयः) फिर (अयं ) इन जीवंधर कुमारने (तत्रापि ) इस विषय में ( औपाधिकं ) उपाय भूत (यक्षमन्त्र ) यक्ष के द्वारा दिये हुए मन्त्रको (व्यचीचरत् ) स्मरण किया । अत्र नीति: ! । (हि) निश्रयसे ( मनीषिणाम् ) विद्वानोंके ( वाञ्छिताप्तिः इच्छित वस्तुकी प्राप्ति ( अनपायात उपायात् ) नाश नहीं होनेवाले स्थिर उपायसे ही (भवति) होती है ॥ ७ ॥
वार्धकं तत्र चोपायमुपायज्ञोऽयमौहत । करुणामावपात्रं हि बाला वृद्धाश्च देहिनाम् ॥ ८ ॥
अन्वयार्थः – ( उपायज्ञः) उपायके जाननेवाले (अयं) इन जीवंधर कुमारने (तत्र) उस विषय में " ( वार्धकम् उपायं) बूढेका रूप धारण करना" अच्छा उपाय ( औहत) सोचा । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (देहिनाम् ) लोगों के (बाला वृद्धाश्र) बालक और वृद्ध ( करुणामात्र पात्र ) अपराध हो जाने पर भी करुणाके पात्र होते हैं । ८ ॥