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क्षत्रचूड़ामणि ।
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अन्वयार्थ:-( सदसन्तौ ) सज्जन और दुर्जन ( अपका रोपकाराभ्यां ) अपकार और उपकार करनेसे ( न भेदिनौ ) दुर्जन और सज्जन नहीं होनाते अर्थात् सज्जनके साथ अपकार करनेसे वह दुर्जन नहीं होजाते और दुर्जनके साथ उपकार करने से वह सज्जन नहीं होजाते है । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चय से ( दग्धं च कल्याणं ) जला हुआ भी सोना ( भाति ) शोभायमान होता है किन्तु ( अङ्गारविशुद्धता ) कोयलेकी शुद्धता ( केनापि उपायेन ) किसी भी उपाय से ( न भवति ) नहीं होती है ॥ ५२ ॥ रिक्तारिक्तदशायां च सदसन्तौ न भेदिनौ । वातापि हि नदी दत्ते पानीयं न पयोनिधिः ॥५३॥
अन्वयार्थः- ( रिक्तारिक्तदशायां च ) धनी और निर्धनकी अवस्था में भी ( सदसन्तौ ) सज्जन और दुर्जन ( न भेदिनौ ) भेदित नहीं होते है अर्थात् - निर्धन अवस्थामें भी सज्जन उपकार ही करते हैं परन्तु दुर्जन सघन अवस्थामें भी अपकार ही करता है । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( खातापि नदी ) सूख जाने पर खोदी हुई नदी ( पानीयं दत्ते ) प्यासोंको जल देती है किन्तु ( पयोनिधिः न ) लवालव जलसे भरा हुआ भी समुद्र किसीके उपयोग में नहीं आता ॥ ५३ ॥ इतीयं किंवदन्ती च तद्देशे शंवदाप्यभूत् । राजन्वती सती भूमिः कुतो वा न सुखायते ॥ ५४ ॥
अन्वयार्थः - (तद्देशे ) जीवंधर स्वामीके राजमें (अपि) भी (इति) इस प्रकार ( इयं किं वदन्ती) यह कहावत ( शंवदा अभूत)