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________________ २२२ दशमो लम्बः । सवको प्यारी हुई (हि) निश्चय से ( राजन्वती) उत्तम राजा से युक्त (सती) समीचीन (भूमि:) पृथवी ( कुतो वा न सुखायते ) क्या प्रजाको सुख देनेवाली नहीं होती है ? किन्तु होती ही है ॥ ५१ ॥ काष्ठाङ्गारकुडुम्बस्याप्यनुमेने सुखासिकाम् । स्वस्थानेsपि महाराजो न ह्यस्थानेऽपि रुटू सताम् ॥५५ अन्वयार्थः - ( महाराजः ) महाराज जीवंधरने ( काष्ठा ङ्गार कुटुम्बस्य ) काष्ठाङ्गारके कुटुम्बको (अपि) भी ( स्वस्थानेsपि ) अपने ही स्थान में ( सुखामिकाम् ) सुख पूर्वक रहनेकी ( अनुमेने ) अनुमति देदी । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( सतां ) सज्जन पुरुषों का ( रुटू ) क्रोध ( अस्थाने ) अयोग्य स्थान में ( न भवति ) नहीं होता है ॥ ५५ ॥ यौवराज्ये च नन्दाख्यं वृद्धक्षत्रोचिते पदे । गन्धोत्कटं च चक्रेऽसौ लोकवन्द्ये च मातरौ ॥५६॥ अन्वयार्थ : - ( फिर असौ ) इन जीवंधर स्वामीने ( यौवराज्ये) युवराज पदपर अपने छोटे भाई ( नन्दादयं ) नन्दायको (च) और ( वृद्धक्षत्रो चिते पदे ) बूढ़े क्षत्रियों के योग्य पदपर ( गन्धोत्कटं ) गन्धोत्कटको (च ) और ( लोकवन्द्ये ) लोकपूज्य ( पदे ) पदपर ( मातरौ ) दोनों माताओंको ( चक्रे ) स्थापित किया ।। ५६ ।। अकरामकरोद्धात्रीं वर्षाणि द्वादशाप्ययम् । महिषैः क्षुभितं तोयं न हि सद्यः प्रसीदति ॥५७॥ अन्वयार्थः — और ( अयं ) इन जीवंधर स्वामीने ( धात्रीं ) पृथ्वीको (णि) बारह वर्ष पर्यंत ( अकराम् ) कर
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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