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________________ दशमो लम्बः । अन्वयार्थ : - ( जिघांसितः ) जिसको मारना चाहते थे उसने ( आत्मानं ) अपने (जिघांसुः) मारनेवालेको ( हत्वा ) मारकर ( राज्य ) राज्य (लेभे) ले लिया । अत्र नीतिः ! हि) निश्चयसे ( भावि ) जो कुछ होना है वह (अवश्यं एव) अवश्य ही ( भवेत् ) होता है ( केना ' प ) किसी से भी (न रुद्धते) नहीं रोका जाता है ॥ ४९ ॥ जिजीविषाप्रपञ्चेन जातोऽयं राजवञ्चकः । काष्टाङ्गारोऽपि नष्टोऽभूत्स्वयं नाशी हि नाशकः ॥ ५० अन्वयार्थ : - ( निनीविषा प्रपञ्चन) अपने जीने की इच्छाके विस्तार से (रानवञ्चकः) राजा को धोखे से मारनेवाला (अयं काष्ठाङ्गारः अपि ) यह काष्ठाङ्गार भी ( नष्टः अभूत् ) मारा गया अत्र नीतिः ( हि ) निश्चय से ( नाशी ) दुसरेका नाश करने वाला ( स्वयं नाशकः स्यात् ) अपना ही नाश करने वाला होता है ॥ ५० ॥ यक्षः क्षणोपकारेण प्राणदायी बभूव सः । काष्टाङ्गारः कृतघ्नोऽभूत्स्वभावो न हि वार्यते ॥ ५१ ॥ अन्वयार्थ : - ( स यक्षः ) कुत्तेका जीव वह यक्ष ( क्षणोपकोरण ) क्षणमात्रके उपकार से ( प्राणदायी वभूव ) जीवंधर स्वा मी प्राणोंके बचानेवाला हुआ और ( काष्ठाङ्गारः ) काष्ठाङ्गार ( कृतघ्नः अभूत् ) कृतघ्नी हुआ अर्थात् सत्यंधर महाराजने जिसे राज्य दिया था वही उन्हींके प्राणोंका घातक हुआ। अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चय से इसलिये ( स्वभावः ) प्रकृति किसीकी भी ( न वार्यते ) निवारण नहीं की जा सकती है ॥५१॥ अपकाररोपकाराभ्यां सदसन्तौ न भेदिनौ । दुग्धं च भाति कल्याणं केनाङ्गारविशुद्धता ॥ ५२ ॥ २२०
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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