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क्षत्रचूड़ामणिः ।
२१९ अन्वयार्थः-(लोके) फिर सारे लोकमें (विस्मयबंहितः) विस्मयसे वृद्धिंगत (तद्वृत्तान्तवितर्कः) जीवंधरस्वामीके वृत्तान्तका विचार (अभूत) हुआ । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( अतयं संपदापद्धयां) अचानक विना विचारे संपत्ति और आपत्तिसे (विशेषतः) अधिकतर (विस्मयः) आश्चर्य (भवति) हुआ करता है ॥४६॥ क पूज्यं राजपुत्रत्वं प्रेतावासे क वा जनिः। क वा राज्यपुनःप्राप्तिरहो कर्मविचित्रता ॥ ४७॥ ___अन्वयार्थः-(क्व) कहां तो (पूज्यं) वह पूज्य (राजपुत्रत्वं) रानपुत्र पना (कवा) और कहां उसका (प्रेतावासे जनिः) श्मशान भूमि में जन्म लेना (क्ववा ) और कहां ( राज्यपुनःप्राप्तिः ) यह फिरसे राज्यका मिल जाना (अहो !) अहो ! ( कर्मविचित्रता) कर्मों की विचित्रता पर आश्चर्य है ॥ ४७ ॥ पुण्यपापाहते नान्यत्सुखे दुःखे च कारणम् । तन्तवो न हि लूतायाः कूपपातनिरोधिनः ॥ ४८ ॥ ___अन्वयार्थ:-(हि) निश्चयसे ( पुण्यपापात् ) पुण्य और पापके (ऋते) बिना ( अन्यत् ) और कोई भी बस्तु (सुखे) सुख (च) और (दुःखे) दुखमें ( कारणं न ) कारण नहीं है । जैसे पापका उदय होनेसे ( लूतायाः) मकडीको उसके जालेके ( त न्तवः ) छोटे २ तन्तु भी ( कूपपातनिरोधिनः न भवंति ) कूपमें गिरनेसे रोकने वाले नहीं होते हैं ॥ ४८ ॥ हत्या जिघांसुमात्मानं लेभे राज्यं जिघांसितः। भाव्यवश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते ॥४९॥