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________________ २१८ दशमो लम्बः । ( गोविन्दराजेन सह ) गोविन्दराजके साथ (गुरुगौरवात् ) बड़े गौरवसे ( महारानं कौरवम् ) महाराजा जीवंधरस्वामीका ( यथा. विधि ) विधिपूर्वक ( अभ्यषिञ्चन् ) राज्याभिषेक किया ॥ ४३ ॥ अयादापृच्छय राजेन्द्रं यक्षेन्द्रोऽपि स्वमन्दिरम् । न ह्यासक्त्या तु सापेक्षो भानुः पद्मविकासने ॥४४॥ अन्वयार्थः- ( यक्षेन्द्रः अपि) यक्षेन्द्र भी (राजेन्द्र आप्टच्छ्य ) राजेन्द्रसे पूछ कर (स्व मन्दिरं ) अपने स्थानको ( अयात् ) चला गया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( भानुः ) सूर्य (पद्मविकासने ) कमलों के प्रफुल्लित होने पर ( आसक्त्या ) फिर किसी आसक्तिसे ( सापेक्षो न भवति ) अपेक्षा नहीं करता है । अर्थात् कमलोंको खिलाकर फिर उनसे कुछ संबंध नहीं रखता हुआ अस्ताचलकी ओर चला जाता है ॥ ४४ ॥ तर्पिताखिललोकोऽस्मात्सौधाभ्यन्तरमाश्रितः । सिंहासनमलंचक्रे राजसिंहः क्रमागतम् ॥ ४५ ॥ ___अन्वयार्थः-(तर्षिताखिललोकः) फिर प्रसन्न किया है सम्पूर्ण लोकको जिसने ऐसे ( राजसिंहः ) उन राजाओंमें श्रेष्ठ जीवंधर स्वामीने (अस्मात् ) इस जिन मन्दिरसे निकल कर (सौधाभ्यंतरमाश्रितः) और अपने महलको प्राप्त करके ( कमागतम् ) कुलपरंपरासे प्राप्त (सिंहासन) राजसिंहासनको (अलंचक्रे) सुशोभित किया ॥ ४५ ॥ तवृत्तान्तवितर्कोऽभूल्लोके विस्मयबृंहितः। अतर्व्यसंपदापयां विस्मयो हि विशेषतः ॥४६॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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