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क्षत्रचूड़ामणिः । आए हुए ( सामन्ताः ) छोटे २ देशोंके राजा (तं सिषेविरे ) उनकी सेवा करने लगे। अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चयसे (नाव्यसभ्यानां) नाटकके सभ्यों अर्थात् दर्शकों के लिये (संपदा) नाटकके पात्रकी सम्पत्तिका ( लयोदयौ ) नाश और उदय ( समौ ) तुल्य होता है ॥ ४० ॥ राजपुर्यामगाचायमभिषेक्तुं जिनालयम् । भगवदिव्यसान्निध्ये निष्प्रत्यूहा हि सिद्धयः ॥४१॥ _अन्वयार्थः-फिर यह जीवंधरस्वामी (राजपुर्या) राजपुरी नगरीके अन्दर (निनालयं ) जिन मन्दिरमें ( अभिषेक्तुं ) राज्याभिषेकसे अभिषक्त होने के लिये (अगात ) चले गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( भगवदिव्यसानिध्ये ) भगवानकी दिव्य समीपता होने पर ( सिद्धयः ) सिद्धिये (निष्प्रत्यूहा भवन्ति) निर्विघ्न परिप्राप्त होती हैं ॥ ४१) तावता संन्यधात्तत्र यक्षो यक्षचरो मुदा । फल मेव हि यच्छन्ति पनसा इव सज्जनाः ॥४२॥ ____ अन्वयार्थः-(तावता) उसी समय (यक्षचरः यक्षः) कुत्तेका जीव यक्ष (मुदा) हर्षसे (तत्र) वहां ( संन्यधात् ) आया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( सज्जनाः ) सज्जन पुरुष (पनप्ता इव) कटहरके वृक्षकी तरह ( फलं एव ) फलको ही ( यच्छंति) देते हैं ॥ ४२ ॥ अथ गोविन्दराजेन यक्षराजो यथाविधि। अभ्यषिञ्चन्महाराज कौरवं गुरुगौरवात् ॥ ४३ ॥
अन्वयार्थः- (अथ) इसके अनंतर ( यक्षराजः ) यक्षेन्द्रने