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________________ २१९ दशमो लम्बः। (आहवे) संग्राममें (अराति) शत्रुको (लोकान्तरं अजीगमत) परलोक पहुंचा दिया । अत्र नीतिः ! ( हन्त ! ) खेद है ! हाय ! (हि) निश्चयसे (संसृतौ) संसारमें (दुर्बलाः) दुर्बल प्राणी (बलिष्ठेन) बलवानोंसे (बाध्यन्ते) पीड़ित किये जाते हैं ॥ १७ ॥ अथ संग्रामसंरम्भं कौरवोऽयमवारयत् । मुधावधादिभीत्या हि क्षत्रिया वतिनो मताः ॥३८॥ __ अन्वयार्थः- (अथ) इसके अनंतर (अयं कौरवः) इस नीवंधर कुमारने शत्रुके मर जाने पर ( संग्रामसंरम्भं ) संग्रामके आरंभको (अवारयत ) बंद कर दिया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (मुधा) व्यर्थ, निष्प्रयोजन (वधादिभीत्या) हिंसादिक पंच पापोंके डरसे ( क्षत्रियाः) क्षत्री लोग ( व्रतिनः मताः ) व्रती माने गये हैं ॥ ३८ ॥ वीरसर्विजया जाता वीरपत्नी च मे सुता। इत्युक्त्वा मातुलोऽधेनमानन्दाद पनन्दयत् ॥३९॥ अन्वयार्थः-मातुलः अपि) जीवंधर स्वामीके मामाने भी " (विनया वीरमूः) मेरी वहिन विजयाने वीरपुत्रको ( जाता) जना (च) और (मे सुता) मेरी पुत्री ( वीरपत्नी ) वीर पुरुषकी स्त्री (जाता) हुई " (इति) इस प्रकार ( उक्त्वा ) कहकर (एन) कुमारका ( आनंदात ) आनन्दसे ( अभ्यनन्दयत् ) अभिनन्दन किया ॥ ३९ ॥ समन्ततः समायाताः सामन्तास्तं सिषेविरे । समौ हि नाट्य सभ्यानां संपदां च लयोदयौ ॥४०॥ अन्वयार्थः--फिर (समन्ततः) चारो ओरसे ( समायातः )
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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