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________________ क्षत्र चूड़ामणिः । قد दशमो लम्बः २०३ अथ पाणिगृहीतीं तां बहुमेने बहुप्रियः । बहुपत्नोपलब्धे हि प्रेमबन्धो विशिष्यते ॥ १ ॥ अन्वयार्थः – (अथ) इसके अनंतर (बहु प्रियः) बहुत स्त्रियों के पति उस जीवंधर कुमारने ( तां पाणिगृहीतीं) उस ब्याही हुई सुरमञ्जरी स्त्रीको ( बहु मेने ) बहुत माना । अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे ( बहुयत्नोपलब्धे ) बहुत यत्नसे प्राप्त वस्तुमें ( प्रेमबन्धः ) प्रेमका संबंध ( विशिष्यते ) विशेषतर हुआ ही करता है ॥ १ ॥ कृच्छ्रेणाराध्य तां भूयो मित्राणां पार्श्वमाश्रितः । स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं कुलजानां कुतो भवेत् ॥२॥ अन्वयार्थः - (भूयः) फिर जीवंधर कुमार (तां) उस स्त्रीको ( कृच्छ्रेण ) किसी न किसी प्रकारसे ( आराध्य ) समझा बुझा करके (मित्राणां पार्श्व ) अपने मित्रोंके समीप (आश्रितः) आगये । अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे ( कुलजानां ) कुलीन स्त्रियोंके ( स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं ) अपने स्वामीकी इच्छा के विरुद्धपना (कुतः ) कैसे ( भवेत् ) हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता ॥ २ ॥ सचित्रीयस्तदा मित्रैः पित्रोरन्तिकमाययौ । आत्मदुर्लभमन्येन सुलभं हि विलोचनम् ॥ ३ ॥ अन्वयार्थः- (तदा) उस समय सुरमञ्जरीके सहज मिल जाने से ( सचित्रीयः ) आश्चर्य युक्त ( मित्रैः ) मित्रोंके साथ
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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