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________________ - क्षत्रचूड़ामणिः। दुश्वरम् तपः ) बहुत कठोर तप ( ते ) किया ( येन) जिस तपके द्वारा ( कर्माष्टकस्य ) आठ कर्मोंका ( नष्टता ) नाशपना ( यथाक्रमम् स्यात् ) यथाक्रमसे होता है ॥ १० ॥ श्रीरत्नत्रयपूाथ जीवंधरमहामुनिः। अष्ठाभिः स्वगुणैः पुष्टोऽनन्तज्ञानसुखादिभिः॥१३॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर (जीवंधर महामुनिः) वे जीवंधर महामुनि (श्रीरत्नत्रयपूर्त्या) श्रीसम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी परिपूर्णतासे ( अनन्तज्ञानसुखादिभिः) अनन्त सुखादिक (अष्टाभिः स्वगुणैः) आठ आत्माके स्वाभाविक गुणोंसे ( पुष्टः अभूत् ) पुष्ट हुए ॥ १०३ ॥ सिद्धो लोकोत्तराभिख्यां केवलाख्यामकेवलाम् । अनुपमामनन्तां तामनुबोभूयते श्रियम् ॥१०४॥ __अन्धयार्थ:-फिर ( सिद्धः भूत्वा ) सिद्ध पदवीको प्राप्त कर (लोकोत्तराभिख्या) सर्व लोकोत्कृष्ट ( अनुपमा ) उपमा रहित (ता)उस (अनन्तां) अनन्त (केवलाख्यां) केवलज्ञान रूपी (अकेवलां श्रियं) मुख्य मोक्षरूपी लक्ष्मीका (अनुबोभूयते) अनुभव किया १०४॥ एवं निर्मलधर्मनिर्मितमिदं शर्म स्वकर्मक्षयप्राप्त प्राप्तुमतुच्छमिच्छतितरां यो वा महेच्छो जनः। सोऽयं दुर्मतकुञ्जरप्रहरणे पश्चाननं पावनं जैन धर्ममुपाश्रयेत मतिमान्निश्रेयसः प्राप्तये ॥१०५॥ ___ अन्वयार्थः- ( योवा महेच्छोजनः ) जो उत्तम सहृदय पुरुष ( एवं ) इस प्रकार (निर्मछधर्मनिर्मितं ) पवित्र धर्मको
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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