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सप्तमो लम्बः । वे रागान्धाः) रागसे अन्धे पुरुष ( कथं ) कैसे ( न शोच्याः ) शोचनीय नहीं होते । अर्थात् शोचनीय होते ही हैं ॥ ५० ॥ उदन्योपद्रुतामत्र मान्य भार्या पतिव्रताम् । पानीयार्थमवस्थाप्य नाद्राक्षं प्रस्थितागतः ।। ५१॥ ____ अन्वयार्थः- (मान्य !) हे माननीय ! (अहं) मैं (उदन्यो पद्रुतां) प्याससे व्याकुल ( पतिव्रताम् भार्या ) पतिव्रता अपनी स्त्रीको ( अत्र ) यहां पर (अवस्थाप्य विठला कर ( पानीयार्थ ) पानीके लिये ( प्रस्थितागतः ) जाकर आया हुवा ( न अद्राक्षम् ) नहीं देखता हूं ॥ ११ ॥ विद्याप्यविद्यमानैव मम विद्याधरोचिता। मोत्तम भवानन्त्र कर्तव्यं कथयेदिति ॥ ५२ ॥
अन्वयार्थ:-( मोत्तम ! ) हे मनुष्यों में श्रेष्ठ ! (भम ) मेरी ( विद्याधरोचिता ) विद्याधरोंके लिये उचित ( विद्या अपि ) बुद्धि भी ( अविद्यमाना इव) अविद्यमानके सदृश हो गई । अर्थात स्त्रीके वियोगसे मैं अपनी जब विद्याएँ भूल गया । (भवान् ) आप (अत्र) इस विषय में (कर्तव्यं) करने योग्य उपायको (कथयेत् ) कहिये ॥ (इति) ऐसा उम विद्याधरने कहा ॥ ५२ ॥ पुरन्धीष्वतिसंधानादभैषीद भयंकरः ।। वचनीयाहि भीरुत्वं महतां महनीयता ॥ ५३ ॥
अन्वयार्थः- ( अभयंकरः ) भय नहीं करनेवाले भीवंधर कुमार ( पुरन्ध्रीपु ) स्त्रियोंमें ( अति संधानात ) अत्यन्त प्रेम करनेसे ( अभैषीत् ) डर गये । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे