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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १५३ (वचनीयात् भीरुत्वं) निंद्यनीक, बुरी बातों से डरफोकपना (महतां ) बड़े पुरुषोंका ( महनीयता ) बड़प्पन है || १२ | नभश्वरं पुनश्चैनं सविपश्चिदबोधयत् । अपश्चिमफलं वक्तुं निश्चितं हि हितार्थिनः ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ : - (पुनः) फिर ( सः विपश्विद् ) उन पण्डित जीवंधरने ( एनं नमश्वरं ) इस विद्याधरको (अबोधयत् ) समझाया | अत्र नीति: ! ( हि ) निश्चय से ( हितार्थिनः ) दूसरोंका हित करनेवाले पुरुष ( निश्चितम् ) निश्चय से ( अपश्चिम फलं ) सर्वोत्तम है फल जिसका ऐसी बातको ( वक्तुं ) कहनेके लिये ( इच्छंति ) इच्छा करते हैं ॥ ५४ ॥ भवदत्त सुधार्तोऽसि विद्यवित्तो भवन्नपि । न विद्यते हि विद्यायामगम्यं रम्घवस्तुषु ॥ ५६ ॥ . अन्वयार्थः - ( भवदत्त) हे भवदत्त ! ( त्वं ) तू ( विद्यावित्तः ) विद्यारूपी धनवाला (भवन् अपि होता हुआ भी क्यों ( मुधा ) व्यर्थ ( आर्तः असि ? दुःखी हो रहा है । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( विद्यायां सत्यां) विद्याके होने पर ( रम्य वस्तुपु) सुंदर पदार्थों में (अगभ्यं) दुष्प्राप्य ( न विद्यते ) कुछ भी नहीं है ॥५५॥ नभश्वर न कश्चित्स्याद्विपश्चिदविपश्चितोः । विनिश्चलशुचोर्भेदो यतश्च कुतश्चन ।। ५६ ।। अन्वयार्थ : --- ( नमश्वर !) हे विद्याधर ( यतश्च कुतश्वन) इधर उधर से ( विपत्तौ सत्यां) विपत्ति आजाने पर (विनिश्वल शुचो :) निश्चल रहना और शोक करना इसके सिवाय (विपश्चिद्
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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