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क्षत्रचूड़ामणिः ।
१८३ प्राप्तिके लिये ( इच्छा स्यात् ) इच्छा हुआ करती है परन्तु (तृप्तिः) इच्छा की पूर्ति अर्थात् संतोष ( कदाचन न ) कभी भी नहीं (भवति) होता है ॥ ५५ ॥
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कच्चित्पितुः पदं ते स्यादङ्ग पुत्रेत्यचोदयत् । सामग्री विकलं कार्य न हि लोके विलोकितम् ॥५६॥ अन्वयार्थः — “ (अङ्गपुत्र) हे पुत्र ! ( कच्चित् ) कोई (ते) तुम्हारे ( पितुः) पिताका ( पदं स्यात् ) स्थान है " ( इति ) इस प्रकार जीवंधर स्वामीसे उनकी माताने ( अचोदयत् ) कहा 1 अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से (लोके) संसार में ( सामग्री विकलं ) उत्पादक सामग्री के बिना ( कार्य ) कार्य ( नविलोकितम् ) नहीं देखा गया है ॥ ५६ ॥
अम्ब किं बत खेदेन बांढं स्यादिति सोऽभ्यधात् । मुग्धेष्वतिविदग्धानां युक्तं हि बलकीर्तनम् ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थः—पुत्रने कहा (बाढं स्यात्) हां है ( है अम्ब ! ) हे माता ! (बत खेदेन किं ) व्यर्थ खेदसे क्या लाभ (इति) इस प्रकार ( सः अभ्यधात् ) उसने कहा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( अतिविदग्धानां ) चतुर पुरुषोंका ( मुग्धेषु) मूढ जनों में ( बलकीर्तनम् ) अपने बलका कथन करना ( युक्तं स्यात् ) युक्त ही होता है ॥ १७ ॥
पुत्रवाक्येन हस्तस्थां मेने माता च मेदिनीम् । मुग्धाः श्रुतविनिश्श्रेया न हि युक्तिवितर्किणः ॥५८॥ अन्वयार्थ : - ( माता ) माताने ( पुत्रवाक्येन ) पुत्रके इस