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________________ अष्टमो लम्बः । प्रकार वचन सुनकर ( मेदिनीम् ) पृथ्वीको (हस्तस्थां) हाथमें आई हुई (मेने) समझी । अत्र नीतिः ! (हि. निश्चयसे (मुग्धाः) मूह पुरुष (श्रुतविनिश्चेया) किसीकी बात सुनने हीसे निश्चय कर लिया करते हैं किंतु (युक्तवितर्किणः ) युक्ति द्वारा किसी कार्यको विचार करने में तत्पर (न भवंति) नहीं होते हैं ॥ ५८ ॥ अपायस्थानमस्तोकं दूरक्षं व्याहरद्विभोः । अमित्रो हि कलत्रं च क्षत्रियाणां किमन्यतः ॥१९॥ ____ अन्वयार्थः-(माता) माताने (विभोः) जीवंधर स्वामीको (दूरक्षं) कष्टसे रक्षा होनेके योग्य (अस्तोकं) एक बड़े भारी (अपायस्थान) नाशके स्थानको (व्याहरत) कहा अर्थात्-राज्यकी बात कह कर जीवंधर स्वामीको युद्ध के लिये तैयार कर दिया । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (क्षत्रियाणां) क्षत्रियों की (कलत्रं) स्त्रियां भी (अमित्रः) शत्रु (भवति) हो जाती हैं (अन्यतः किं औरका तो फिर कहना ही क्या है ॥ ५९ ॥ कर्तव्यं च ततो मात्रा मन्त्रितं तेन मन्त्रिणा । विचार्यवेतरैः कार्य कार्य स्यात्कार्यवेदिभिः ॥६०॥ ___अन्वयार्थ:-(ततः) इसके अनंतर (तेन मन्त्रिणा) विचार करनेवाले उन जीवंधर स्वामीने (मात्रा) माताके साथ (कर्तव्यं) करने योग्य कार्यका (मन्त्रित विचार किया । अत्र नीतिः ! निश्चयसे (कार्यवेदिभिः) कार्य करनेमें चतुर पुरुष (इतरैः सह) दूसरोंके साथ (कार्य) कार्यको (विचार्य एव) विचार करके ही (कार्यं स्यात्) कार्य किया करते हैं ॥ ६ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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