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क्षत्रचूड़ामणिः । प्राहिणोत्प्रसवित्री तां मातुलोपांतिके कृती। न हि मातुः सजीवेन सोढव्या स्यादुरासिका ॥६॥
अन्वयार्थः-फिर (कृती) विद्वान् जीवंधरने (तां प्रसवित्री) अपनी उस माताको (मातुलोपान्तिके) अपने मामाके समीप (प्राहिणे त्) भेनदिया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (मातुः दुरासिका) अपनी माताकी दुःख अवस्था (सजीवेन) किसी भी जीवधारी पुरुषसे (न सोढव्या) सहन नहीं की जासकती है ॥६१॥ ततः सपरितोषोऽयं परिव्राजकपार्श्वतः। निकषा स्वपुरं प्राप्य तदारामे निषण्णवान् ।। ६२॥
अन्वयार्थः- ततः) तदनन्तर (सपरितोषः अयं) संतुष्ट यह जीवंधर कुमार (परिव्राजकपार्श्वतः) दण्डक बनके त पस्वियोंके पाससे (स्वपुरं) अपने नगरके (निकषा) समीप (प्राप्य) पहुंच कर (तदारामे) वहांके बगीचे में ( निषण्णवान् ) ठहर गये ॥६॥ तत्र मित्राण्यवस्थाप्य व्यहरत्परितः पुरीम् । विशृङ्खला न हि कापि तिष्ठन्तीन्द्रियदन्तिनः ॥३३॥
अन्वयार्थः- तत्र) वहां पर जीवंधर स्वामीने ( मित्राणि ) मित्रोंको ( अवस्थाप्य ) बिठला कर ( पुरीं परितः ) नगरीके चारों ओर ( व्यहरत ) विहार किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( विशृङ्खला ) बन्धन रहित ( इन्द्रिय दन्तिनः ) इन्द्रिय रूपी हाथी ( क्वापि ) कहीं एक जगह पर ( न तिष्ठन्ति ) स्थिर नहीं रहते हैं ॥ ६३ ॥