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________________ . १८६ अष्टमो लम्बः । ततो राजपुरी वीक्ष्य सुतरामतृपत्राधीः। ममत्वधीः कृतो मोहः सविशेषो हि देहिनाम् ॥६॥ अन्वयार्थः- ( ततः ) फिर ( सुधीः ) बुद्धिमान जीवंधर कुमार ( रानपुरी ) राजपुरी नगरीको ( वीक्ष्य ) देखकर (सुतरां) स्वयमेव ( अतृपत् ) अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे ( देहिनाम् ) प्राणधारियोंके ( ममत्वधीः कृतः ) ममत्व बुद्धिसे किया हुआ ( मोहः ) मोह ( स विशेषो भवति ) बहुत अधिक होता है। ___अर्थात् – जहां पर " यह मेरी वस्तु है , वहां पर प्रेम विशेष रीतिसे हुआ करता है ॥ ६४ ॥ क्रीडन्ती कापि हाग्रात्पातयामास कन्दुकम् । संपदामापदां चाप्तिाजेनैव हि केनचित् ॥ ६५ ॥ ... अन्वयार्थः-(तत्र) उस नगरीमें (क्रीडन्ती) क्रीड़ा करती हुई ( कापि ) किसी जवान कन्याने (हाग्रात् ) अपने महलके ऊपरसे ( कन्दुकम् ) गेंद ( पातयामास ) फेंकी। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( संपदां ) सम्पत्ति (च) और (आपदां) आपत्तिकी (आप्तिः) प्राप्ति ( केनचित् ) किसी (व्याजेन एव भवति) वहा. नेसे ही होती है ।। ६५ ।। उबक्रस्तद्वतीं मृत्यां दृष्ट्वामुह्यदबाह्यधीः । वशिनां हि मनोवृत्तिः स्थान एव हि जायते ॥६६॥ ___अन्वयार्थः ---( अबाह्यधीः ) बाह्य पदार्थों में नहीं हैं बुद्धि मिनकी ऐसे जीवंधर स्वामी ( उहकः ) ऊपरको मुख किये हुए
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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