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________________ प्रथमोलम्बः । प्रगटतासे ( विद्या स्मृता इव ) विद्यायें यादकी तरह ( अभवन् ) आ गई । अर्थात् जिस प्रकार भूली हुई वस्तु याद आ जाती हैं उसी तरह उसे विद्यायें प्राप्त हो गई ! अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (गुरुस्नेहः कामसूः) गुरुका प्रेम सम्पूर्ण इच्छाओंको पूरा करनेवाला होता है ॥ २ ॥ अनुनावकमेवात्र जीवलोके विपश्चितः । इति निश्चयतः मृरिः सुतरां प्रीतिमवजत् ॥ ३ ॥ __अन्वयार्थः--(अत्र जीवलोके) इस संसार में (विपश्चितः) जितने पण्डित हैं वे सब जीवकं अनु एव) जीवंधरसे हीन (कम योग्यताके) ही हैं ( इति निश्चयतः) ऐपा निश्चय होनेसे (सूरिः ) पढानेवाले आचार्य ( सुतरां प्रतिं ) स्वयमेव उस पर प्रसन्न (अवनत् ) होते भये ॥ १०३ ।। आत्मकृत्यमकृत्यं च सफलं प्रीतये नृणाम् । किं पुनः श्लाघभूतं तम्कि विद्यास्थापनात्परम् ॥४॥ अन्वयार्थ:-- ( नृणाम् ) मनुष्योंको ( आत्मकृत्यं ) अपना कार्य (अकृत्यं च) बुरा भी (सफलं) सफल होने पर ( प्रीतये ) प्रीतिकर (भवति) होता है तो फिर (श्लाध्यभूतं ) अच्छा काम (किं पुनः वक्तव्यं) क्यों अच्छा नहीं लगेगा ? लगेगा ही, उसमें भी ( विद्या स्थापनात्परं तत्किं) विद्या स्थापनसे (विद्यादानसे बढ कर) और दूसरा कौन अच्छा काम है ? (कोई भी अच्छा काम नहीं ह) ॥ ४ ॥ अथ प्रसन्नधीः सूरिरन्तेवासिनमेकदा । एकान्ते हि निजप्रान्तमावसन्तमचीकथत् ॥५॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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