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एकादशो लम्बः। स्वयं ही ( त्याज्याः ) छोड़ देने चाहिये ( तथाहि ) ऐसा करने पर ( मुक्तिः स्यात् ) आत्मा कर्म बन्धनसे छूट जाती है। ( अन्यथा ) और इसके विपरीत करनेसे ( संसृतिः एव स्यात् ) संसार ही होता है अर्थात् फिर संसारमें घूमना पड़ता है ॥३१॥ अनश्वरसुग्वावाप्तौ सत्यां नश्वरकायतः । किं वृथैव नयस्यात्मन्क्षणं वा सफलं नय ॥ ३२ ॥ ____ अन्वयार्थ ---(हे आत्मन् !) और हे आत्मा ! यदि (नश्वरकायतः) नाशवान शरीरसे ( अनश्वरसुखावाप्तौ सत्यां ) अविनाशी सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो सके तो (किं) क्यों (वृथा एव) वृथा ही (क्षणं) समयको (नयसि) खोता हैं (सफलं नय) तू इस समयको सफल कर ॥ ३२ ॥
२-अथाशरणानुप्रेक्षा । पयोधौ नष्टनौकस्य पतत्रेरिव जीव ते । सत्यपाये शरण्यं न तत्स्वास्थ्ये हि सहस्रधा ॥३३॥ ___अन्वयार्थः-(हे जीव) हे जीव ! (पयोधौ) समृद्रमें (नष्टनौकस्य) डूब गया है नौकारूपी आश्रय जिसका ऐसे (पतत्रेरिव) बक्षीकी तरह (ते) तेरे (अपाये सति) नाश अर्थात् मृत्युके समय (शरण्यं न) कोई भी शरण नहीं है । अत्र नीतिः ! (हि निश्चयसे (स्वास्थ्ये) सुखी अवस्थामें (सहस्रधा शरण्यं भवंति) हजारों शरण हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ आयुधीयैरतिस्निग्धैर्बन्धुभिश्चाभिसंवृतः। जन्तुः संरक्ष्यमणोपि पश्यतामेव नश्यति ॥३४॥