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________________ क्षत्रचूड़ामणिः। . २३५ है ( तस्मात ) इसलिये ( तत् ) यह राज्य ( मया एव ) मेरेसे (त्याज्यं एव) छोड़ने ही योग्य है ॥ २८ ॥ जाताः पुष्टा पुनर्नष्टा इति प्राणभृतां प्रथाः। न स्थिता इति तत्कुर्याः स्थायिन्यात्मन्पदे मतिम्२९ ___ अन्वयार्थः-(जाताः) जन्म धारण कर (पुष्टाः ) पुष्ट हुए (पुनर्नष्टाः ) और फिर नष्ट हो गये (इति) ऐसी (प्राणभृतां ) संसारमें प्राणियोंकी ( प्रथाः) परिपाटी है (नकेऽपि स्थिताः ) कोई भी स्थिर नहीं है (तत् ) इसलिये (हे आत्मन् ! ) हे आत्मा ! ( स्थायिनी पदे ) सदा स्थिर रहनेवाले मोक्षस्थानमें ही ( मतिं ) बुद्धि अर्थात् अपने ध्यानको (कुर्याः) लगा ॥२९॥ स्थायीति क्षणमात्र वा ज्ञायते न हि जीवितम् । कोटेरप्पधिकं हन्त जन्तूनां हि मनीषितम् ॥३०॥ ___अन्वयार्थः--(हि) निश्चयसे ( जीवितम् ) यह जीवन (क्षणमात्रं वा ) क्षणमात्र भी (स्थायीति न ज्ञायते ) स्थायी नहीं जान पड़ता है । हन्त ! खेद है ! फिर भी ( जन्तूनां ) प्राणियोंकी ( मनीषितम् ) इच्छायें ( कोटैरपि अधिक ) क्रोड़ोंसे भी अधिक है ॥ ३० ॥ अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसूतिरन्यथा ॥३१ अन्वयार्थः- यदि ) अगर (विषयाः ) इन्द्रियोंके विषय (चिरं ) बहुत काल तक (स्थित्वापि) स्थिर रहकर भी (अवश्य) अवश्य ( नश्यन्ति ) नाशको प्राप्त हो जाते हैं। तो ( स्वयं )
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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