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________________ A क्षत्रचूड़ामणिः । कराई कि नो चंद्रक यंत्रको भेदन करेगा मैं उसे अपनी कन्या व्याह दूंगा अत्र नीति: ! ( हि ) निश्चयसे ( उपायप्रष्टरूढा ) सदुपायमें तत्पर पुरुष ( कार्यनिष्टानिरंकूशाः भवन्ति ) नियमसे कार्यको विघ्न रहित सिद्ध करलिया करते हैं ॥ २३ ॥ धनुर्धराश्च संभूतास्वर्णिककुलोद्भवाः । आमोहो देहिनामास्थामस्थानेऽपि हि पातयेत्॥२४॥ - अन्वयार्थः—तदनंतर (त्रैवर्णिक कुलोद्भवाः ) तीनोंवों के कुलमें उत्पन्न (धनुर्धराः) धनुष धारी (संभूताः) वहां आकर इकट्ठे हो गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (आमोहः) मोहका सद्भाव अर्थात् जब तक मोह रहता है तब तक ( देहिनाम् ) जीवोंकी ( आस्थां) बुद्धि अथवा यत्नको ( अस्थानेऽपि ) उसके नहीं पाने योग्य वस्तुमें भी ( पातयेत् ) पतन करा देता है ॥ २४ ॥ ततश्चन्द्रकयन्त्रस्थवराहत्रय भेदने । न शेकुश्वापिनः सर्वे क विद्या पारगामिनी ॥२५॥ अन्वयार्थः-(ततः) फिर (सर्वं चापिनः) सम्पूर्ण धनुषधारी ( चन्द्रकयंत्रस्थवराहत्रयभेदने ) चंद्रक यंत्रमें बने हुए वराहोंके छेदनेमें (न शेकुः) समर्थ नहीं हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( पारिगामिनी ) परिपूर्ण (विद्या ) विद्या (क्व) कहां रक्खी है ॥ २५ ॥ अलातचक्रतः शीघ्रं चक्रमारुह्य हेलया। विव्याध विजयासूनुर्भानुः किं न तमोहरः ॥ २६ ॥ ___ अन्वयार्थः- ( विजयासूनुः ) विजया रानीके पुत्र जीवंधर १-तीन वर्णके कुल–ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य ।
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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