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________________ ६० द्वितीयो लम्बः । (क्षुद्रं किं वा न साधयेत् ) क्षुद्र किस कार्यको साधन नहीं करेगी ? करेगी ही। जैसे ( त्रिलोकी मूल्यरत्नेन ) तीन लोक है मूल्य जिसका ऐसे रत्नसे (तुषोत्करः) भूसेका ढेर मिलना (किं दुर्लभः) क्या दुर्लभ है ? (अपि तु न दुर्लभः) किन्तु दुर्लभ नहीं है ।।३२॥ गुरुद्रुहां गुणः को वा कृतघ्नानां न नश्यति । विद्यापि विद्युदाभा स्यादमूलस्य कुतःस्थितिः॥३३॥ अन्वयार्थः- (गुरुद्रुहां) गुरूसे द्रोह करनेवाले (कृतवानां) कृतघ्नी-उपकारको भूलनेवालोंका ( को वा गुणः ) कौनसा गुण (न नश्यति नष्ट नहीं होता है ? अर्थात् (सर्वे गुण : नश्यं ते) सर्व गुण नष्ट हो जाते हैं (तेषां) उन लोगोंकी (विद्या अपि) विद्या भी ( विद्युत् आभा स्यात् ) विनलीके समान क्षणस्थायी होती है ? ठीक है ( अमूलस्य स्थितिः कुतः भवति ) जड़रहितकी स्थिति कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती । अर्थत् विना कारणके कोई वस्तु नहीं ठहर सकती है ॥ ३३ ॥ गुरुद्रुहो न हि कापि विश्वास्यो विश्वघातिनः । अबिभ्यतां गुरुद्रोहादन्यद्रोहात्कुतो भयम् ॥ ३४॥ ___अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (क्कापि) कहीं पर भी (विश्वघातिनः) सम्पूर्ण जगतके नाश करनेवाले (गुरुद्रुहोः) गुरुद्रोहीका (न विश्वास्यः) विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि (गुरुद्रोहात् अविभ्यतां) गुरुद्रोहसे नहीं डरनेवाले पुरुषोंको ( अन्य द्रोहात् ) दूसरोंके साथ द्रोह करनेसे ( कुतः भयम् ) कैसे भय हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥ ३४ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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