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________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ४९ शुद्धि हो जानेसे ( विशेषतः ) विशेष रीतिसे ( मोदो भवति ) हर्ष होता है ॥ २९ ॥ रत्नत्रयविशुद्धः सन्पात्रस्नेही परार्थकृत् । परिपालितधर्मो हि भवान्धेस्तारको गुरुः ॥ ३० ॥ अन्वयार्थः – (हि) निश्चयसे ( यः रत्नत्रयविशुद्धः सन् ) जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्रसे विशुद्ध होता हुआ, (पात्रस्नेही ) पात्र में स्नेह करनेवाला, ( परार्थकृत् ) परोपकारी, (परिपालित धर्मः ) धर्मका पालन करनेवाला और ( भवाब्धेः तारकः ) संसाररूपी समृद्रसे तारनेवाला हो ( सः गुरु अस्ति ) वह गुरु है अथात् ऐसा गुरु होना चाहिये || १० || गुरुभक्तो भवाद्भीतो विनीतो धार्मिकः सुधीः । शांतस्वान्तो ह्यतन्द्रालुः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ३१ अन्वयार्थ ः– (यः गुरुभक्तः) जो गुरुभक्त, ( भवाद् भीतः ) संसारसे भयभीत, ( विनीतः ) विनयी, ( धार्मिकः ) धर्मात्मा, ( सुधीः) उत्तम बुद्धिवाला ( शान्तस्वान्तः) हृदयका शान्त, (अतंद्रालु स्य रहित और (शिष्टः) उत्तम आचरणवाला हो ( सोऽयं शिष्यः इष्यते ) वह शिष्य माना गया है। अर्थात् शिष्य ऐसा होना चाहिये । ३१ ॥ गुरुभक्तिः सती मुक्त्यै क्षुद्रं किं वा न साधयेत् । त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभः किं तुषोत्कर : ॥३२॥ अन्वयार्थ :- जब (सती गुरुभक्तिः समीचीन गुरुकी भक्ति ( मुक्त्यै भवति ) मुक्तिकी प्राप्तिके लिये होती है ? तो फिर
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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