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________________ २५१ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (मुग्धोचितं) मूढ पुरुषोंके भोगने योग्य ( सुख ) इन्द्रिय सुखको (मुक्त्वा) छोड़कर ( तपसि यतस्व ) तप करनेमें यत्न कर अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (प्रकाशे ) प्रकाश होनेपर ( चिरस्थायी) चिरकालसे स्थित ( अन्धकारः अपि ) अन्धकार भी (विनश्यति) नष्ट हो जाता है ॥ ७३ ॥ . ११-अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा । भब्यत्वं कर्मभूजन्म मानुष्यं स्वगवंश्यता। दुर्लभं ते क्रमादात्मन्समवायस्तु किं पुनः ॥ ७४॥ ___ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (ते ) तेरा (कर्मभूजन्म ) कर्म भूमिमें जन्म लेना, ( मानुष्यं ) मनुष्यपर्यायका पाना, ( भव्यत्वं ) भव्यता, ( स्वङ्गवंश्यता ) सुन्दर शरीर और अच्छे कुलमें उत्पन्न होना-ये सब बातें ( क्रमात् ) क्रमसे ( उत्तरोतरं दुर्लभं ) उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं ( तु ) और ( समवायः ) इन सबका एक जगह मिलना तो ( अतीव दुर्लभः ) अत्यन्त ही दुर्लभ है ।। ७४ ॥ व्यर्थः स समवायोऽपि तवात्मन्धर्मधार्न चेत् । कणिशोगमवैधुर्ये केदारादिगुणेन किम् ॥ ७९ ॥ __अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! अब भी (चेत्) यदि ( तव ) तेरी (धर्मधीः न स्यात् ) धर्ममें बुद्धि नहीं हुई तो (स समवायः अपि व्यर्थः ) पूर्वोक्त सब बातोंका मिलना भी निष्फल है । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( कणिशोद्मवैधुर्ये)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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