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________________ २५० एकादशो लम्बः । और (त्रिमरुतू वृत्तः ) घनोदधिवातबलय, घनबातवलय और तनुवातवलय इन तीन बात वलयोंसे वेष्टित ( प्रसारिताघिणा ) पैर फैलाये हुए ( कटिनिक्षिप्तपाणिना) कमर पर हाथ रक्खा है जिसने ऐसे (पुंसा) पूरूषके ( तुल्यः ) समान (लोकः अस्ति ) यह लोक है ॥ ७० ॥ जन्ममृत्योः पदे ह्यात्मन्नसंख्यातप्रदेशके । लोके नायं प्रदेशोऽस्ति यस्मिन्नाभूरनन्तशः ॥७॥ अन्वयार्थः---(हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (अन्म मृत्योः) जन्म मरणके ( पदे ) स्थान ( असंख्यातप्रदेशके ) असंख्यात प्रदेश रूप ( लोके ) इस लोकमें ( अयं प्रदेशः नास्ति ) ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है ( यस्मिन् ) जिस प्रदेशमें ( त्वं ) तू (अनंतशः) अनन्तवार ( न अभूः ) न जन्मा मरा हो ॥७१ ॥ सत्यज्ञाने पुनश्चात्मन्पूर्ववत्संसरिष्यसि । कारणे जृम्भमाणेऽपि न हि कार्यपरिक्षयः ॥७२॥ ___ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (अज्ञाने सति) मिथ्या ज्ञानके होने पर ( त्वं ) तू ( पूर्ववत् ) पहलेकी नाई ( पुनश्च ) फिर ( संस रिष्यप्ति ) संसारमें घूमेगा । अत्र नीतिः : (हि ) निश्चयसे (कारणे जृम्भमाणे) कारणके विद्यमान रहने पर ( अपि ) क्या ( कार्यपरिक्षयः भवति ) कार्य नष्ट हो जाता है ! ( न भवति ) अर्थात् कार्य कदापि नष्ट नहीं होता है ॥ ७२ ॥ यतस्व तत्तपस्यात्मन्मुक्त्वा मुग्धोचितं सुखम् । चिरस्थाय्यन्धकारोऽपि प्रकाशे हि विनश्यति ॥७३॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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