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क्षत्रचूड़ामणिः । बाह्य पदार्थोंमें इच्छा न करना ही सुख है ( तत्तस्मात् ) इसलिये (बाह्ये ) बाह्य पदार्थो में ( किं) क्यों ( मुधा ) वृथा (मुह्यसि) मोह करता है ॥ १७ ॥ गुप्तेन्द्रियः क्षणं वात्मन्नात्मन्यात्मानमात्मना । भावयन्पश्य तत्सौख्यमास्तां निश्रेयसादिकम् ॥६८॥
__ अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ( गुप्तेन्द्रियः ) जितेन्द्रिय होकर ( आत्मनि ) आत्मामें ( आत्मना ) आत्माके द्वारा ( आत्मानं ) आत्माको (क्षणं भावयन् ) क्षणमात्र अनुभव न करता हुआ (त्व) तू ( तत्सौख्यं पश्य ) उस सुखको देख (निश्रेयसादिकम् दूरे आस्तां ) मोक्षका सुख तो दूर ही रहने दे ॥ ६८ ॥ अनन्तं सौख्यमात्मोत्थमस्तीत्यत्र हि सा प्रमा। शान्तस्वान्तस्य या प्रीतिः स्वसंवेदनगोचरा ॥१९॥
___ अन्वयार्थः-- ( शान्तस्वान्तस्य ) शान्त अन्तःकरणवाले पूरुषोंको ( स्वसंबेदन गोचरा ) अपने आप अनुभवमें आनेवाली (प्रीतिः) प्रीति ही (आत्मोत्थं) आत्मासे उत्पन्न (अनन्तं सौख्यं) अनन्त सुख है (हि) निश्चयसे (इत्यत्र) इसमें ( सा प्रमा ) यही प्रमाण है ॥ ६९ ॥
१०-अथ लोकानुप्रेक्षा । प्रसारिताघ्रिणा लोकः कटिनिक्षिप्तपाणिना। तुल्यः पुंसोर्ध्वमध्याधोविभागस्त्रिमरुतः ॥ ७० ॥
अन्वयार्थः-हे आत्मन् ! ( ऊर्ध्वमध्याधो विभागः) ऊर्ध्व लोक, मध्यलोक और अधोलोक ये तीन विभाग हैं जिसके ऐसा .