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________________ २४८ एकादशो लम्बः । संचित जलके निकल जानेपर और ( अप्रवेशे च ) नवीन जलके नहीं आनेपर ( जलम् ) जल ( कुतः ) कहांसे ( भवेत ) हो सकता है ? । ६४ ।। रत्नत्रयस्य पूर्तिश्च त्वयात्मन्सुल भैव सा । मोहक्षोभविहीनस्य परिणामो हि निर्मलः ॥ ६५ ॥ अन्वयर्थः - ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( तदा ) तब ( सा रत्नत्रयस्य पूर्तिश्च) वह रत्नत्रय की पूर्ति ( त्वया सुलभा एव ) तेरे लिये सुलभ ही हो जायगी (हि) निश्चय से ( मोहक्षोभविहीनस्य ) मोहके क्षोभसे रहित जीवके ( परिणाम: ) परिणाम ( निर्मल: ) निर्मल ( भवेत्येव ) ही होते हैं ॥ ६५ ॥ परिणामविशुद्ध्यर्थ तपो बाह्यं विधीयते । न हि तण्डुलपाकः स्यात्पावकादिपरिक्षये ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थः — हे आत्मन् ! ( परिणामविशुद्धयर्थं ) परणामोंकी शुद्धिके लिये ( बाह्यं ताः ) बाह्य तर ( विधीयते ) वरना चाहिये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( पावकादि परिक्षये ) अग्नि आदिकके अभाव में ( तण्डुलपाकः न स्यात्) चावलों का पकना नहीं होता है ॥ ६६ ॥ परिणामविशुद्धिश्च बाह्ये स्यान्निःस्पृहस्य ते । निःस्पृहत्वं तु सौख्यं तद्वा मुह्यास किं मुधा ॥६७॥ अन्वयार्थ : हे अत्मन (बाह्य) बाह्य पदार्थो में (निःस्टहस्य ते ) इच्छा रहित तेरे ( परिणामविशुद्धिश्च स्य तू ) परिणा मोंकी विशुद्धि होगी ( तु पुनः ) और (निःस्पृहत्वं सौख्यं भवति)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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