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क्षत्रचूड़ामणिः ।
२४७ शुष्कनिर्वन्धतो बाह्ये मुह्यतस्तव हृव्यथा । प्रत्यक्षितैव नन्वात्मन्प्रत्यक्षनिरयोचिता ॥ ६२ ॥
__ अन्वयार्थः- ( हे आत्लन् ! ) .हे आत्मन् ! ( बाह्ये ) बाह्य पदार्थोंमें ( शुष्कनिर्बन्धतः ) निःसार संमंध करके ( मुह्यतः तव ) मोह करते हुए तेरे (ड्यथा ) हृदयमें पीड़ा ( प्रत्यक्ष निरयोचिता ) प्रत्यक्ष तर्कके सम न ( प्रत्यक्षिता एव ) प्रत्यक्ष सिद्ध ही है ॥ १२ ॥
९ अथ निर्जरानुपेक्षा । रत्नत्रयप्रकर्षण बद्धकर्मक्षयोऽपि ते ।
आध्मातः कथमप्यग्निचं किं वावशेषयेत् ॥३३॥ .. अन्वयार्थ:-हे आत्मन् ! ( रत्नत्रयप्रकर्षण ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रकी वृद्धिसे (ते) तेरे ( बद्धकर्म क्षयोऽपि भवेत् ) संचित वर्मोका नाश हो ही जाता है जैसे ( आध्मातः ) धोंकनीसे उद्दीप्त हुई ( अग्निः ) अग्नि ( दाह्य) दाह्य वस्तुको (fi ) क्या (कथमपि ) किसी प्रकार (अवशेषयत) बाकी रहने देती है किन्तु नहीं रहने देती ।। ६३ ॥ क्षयादनास्त्रवाचात्मन्कर्मणामामि केवली। निर्गमे चाप्रवेशे च धाराबन्धे कुतो जलम् ॥ ६४ ॥ _अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् (त्वं) तू (कर्मणां) पूर्व संचित कर्मोंके ( क्षयात् ) क्षयसे ( अनास्रवाच्च ) औ आगामी आनेवाले कर्मोके निरोधसे ( केवली असि ) केवलीके समान है जैसे ( धाराबन्धे ) सरोवरमें ( जलस्य निर्गमे ) पूर्व