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________________ सप्तमो लम्बः । निश्चयसे (पाणिगृहीतीनां) विवाहता स्त्रियोंके (प्राणाः) प्राण (प्राणनाथः) उनके पति ही हैं (अपरं न) और कोई नहीं ॥ ३ ॥ सुभद्रोऽपि पवित्रं तमन्विष्याधिमयोऽभवत् । बहुयत्नोपलब्धस्य प्रच्यवो हि दुरुत्सहः ॥ ४ ॥ ___अन्वयार्थः- (सुभद्रः अपि) सुभद्र नामके सेठ भी (तं पवित्रं) उन पवित्र जीवधर स्वामीको (अन्विप्य) ढूंढकर उनके न मिलने पर (आधिमयः अभवत् ) मनमें अत्यन्त दुःखी हुए। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( बहु यत्नोपलव्धस्य ) बहुत यत्नसे प्राप्त वस्तुका (प्रच्यवः) हाथसे निकल जाना (दुरुत्सहः) अतीव दुःखकर होता है ॥ ४ ॥ स्वामी स्वाभरणत्यागमैच्छ गच्छन्नतुच्छधीः । विवेकभूषितानां हि भूषा दोषाय कल्पते ॥ ५ ॥ ___अन्वयार्थः--(अतुच्छधीः स्वामी) श्रेष्ट बुद्धिवाले जीवंधर स्वामीने ( गच्छन् ) जाते समय ( स्वाभरण त्यागं ऐच्छत् ) अपने आभूषणों के देने की इच्छा की । अत्र नीतिः ! (हि) निश्च. यसे (विवेक भूषितानां विवेक बुद्धिसे भूषित पुरुषोंके ( भूषा) भूषणा भरणादि (दोषाय) दोषके लिये ही (कल्पते) होते हैं । ५ धार्मिकाय तदाकल्पं दातुं च समकल्पयत् । स्थाने हि बीजवदत्तमेकं चापि महस्रधा ॥६॥ ___अन्वायर्थः-(तदा) उसी समय (सः) उन जीवंधर स्वामीने (धार्मिकाय ) धार्मिक पुरुषके लिये ( आकल्पं ) भूषणोंको (दातुं) देनेके लिये ( समकल्पयत् ) संकल्प किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (स्थाने) योग्य स्थानमें ( बीजवत् ) बीजके सदृश (दत्तं
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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