SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १३७ एकं चापि) दी हुई एक वस्तु भी (सहस्रधा फलति ) हजार गुनी फलती है ॥ ६ ॥ तावता संन्यधात्कोऽपि सन्निधेस्तस्य संनिधौ । भागधेय विधेया हि प्राणिनां तु प्रवृत्तयः ॥ ७ ॥ अन्वयार्थः - ( तावता ) इतने ही में (कः अपि) कोई पुरुष (सन्निधेः तस्य) सज्जनोंके उपकारक उन जीवंधर स्वामीके (संनिधौ ) पास ( सन्यधात् ) आया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( प्राणिनां प्रवृत्तयः) प्राणियों की सारी प्रवृत्तियां ( भागधेय विधेया भवन्ति ) उनके भाग्यके अनुकूल हुआ करती हैं ॥ ७ ॥ आगच्छन्तमपृच्छच्च पामरं पार्श्वमात्मनः । कुतः कुत्र प्रयासि त्वं स्वास्थ्यं चास्ति न वेति च ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ - ( जीवंधरः ) जीवंधर स्वामीने (आत्मनः पाश्च) अपने समीपमें ( आगच्छन्तं ) आये हुए ( पामरं ) उस ग्रामीण पुरुषसे ( अपृच्छत् ) पूछा । ( त्वं ) तुम ( कुतः आगतः ) कहां से आये हो (च) और (कुत्र प्रयासि) कहांको जाओगे (ते स्वास्थ्यं अस्ति न वा ) तुम्हारे कुशल है अथवा नहीं (इति) इस प्रकार पूछा ॥ ८ ॥ प्रीतः प्रत्यब्रवीत्सोऽपि प्रश्रयेण समाश्रितः । मुखदानं हि मुख्यानां लघुनामभिषेचनम् ॥ ९ ॥ अन्वयार्थः - ( सः अपि) उसने भी ( प्रीतः सन् ) प्रसन्न होकर ( प्रश्रयेण समाश्रितः ) विनय पूर्वक ( प्रत्यब्रवीत् ) उनको उत्तर दिया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (मुख्यानां ) बड़े मनुष्यों का (मुखदानं ) छोटे आदमियोंसे प्रीति पूर्वक बोलना (लघुनां अभिषेच
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy