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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अथ सप्तमो लम्बः। अथ वध्वा तया साकमनुबोभूय भूयसीम् । सुखतातिं ततो यातुं विततान मतिं कृती॥१॥ अन्वयार्थ:-(अथ) क्षेमश्रीके विवाहानन्तर (कृती) पुण्यशाली जीवंधरने (तया वध्वा साकं) उस स्त्रीके साथ (भूयसीम् सुखताति) बहुत सुख परंपराको (अनुबोभूय) अनुभवन करके (ततः यातुं) वहांसे जानेके लिये (मति विततान) बुद्धि की ॥१॥ अकथयन्नथ स्वामी गणरात्रात्यये गतः । न हि मुग्धाः सतां वाक्यं विश्वसन्ति कदाचन ॥२॥ अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनन्तर (स्वामी) जीवंधर स्वामी (गणरात्रात्यये) बहुतसी रात्रियोंके बीत जाने पर (अकथयन्) बिना कहे हुए ही वहांसे (गतः) चले गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (मुग्धाः) भोले मनुष्य (सतां वाक्यं) सज्जन पुरुषोंके वाक्योंका (कदाचन) कभी भी (न विश्वसन्ति) विश्वास नहीं करते हैं ॥ २॥ तद्वियोगादभूत्पत्नी दग्धरज्जुसमद्युतिः। प्राणाः पाणिगृहीतीनां प्राणनाथो हि नापरम् ॥३॥ ___अन्वयार्थः--(पत्नी) जीवंधर स्वामीकी क्षेमश्री नामकी स्त्री (तद्वियोगात्) उनके वियोगसे (दग्बरज्जुसमद्युतिः) जली हुई रस्सीके समान कान्तिहीन (अभूत) हो गई । अत्र नीतिः । (हि)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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