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षष्ठो लम्बः । नम्रता ( पक्वतां शास्ति ) उनकी पक्वता अर्थात् योग्यता और बड़प्पनको प्रगट करती है ।। ४८ ॥ तद्देश्म तस्य निर्बन्धादथ बन्धुप्रियो गतः। सख्यं साप्तपदीनं हि लोके संभाव्यते सताम् ॥४९॥
अन्वयार्थः- (अथ; इसके अनंतर (बंधुप्रियः) बंधुओंका प्यारा जीवंधर (तस्य निबन्धात् ) उस सेठके आग्रह करनेसे (तद्वेश्मगतः) उनके घर गये । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (लोके) संसारमें (सतां सख्यं) सज्जन पुरुषोंकी मित्रता (साप्तपदीनं संभाव्यते) दूसरोंके साथ सात पदोंके उच्चारण करनेसे ही हो जाती है ॥४९॥ आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् । कन्यायाः करपीडां च तदैन्यादन्वमन्यत ॥५०॥ ___अन्वयार्थः- (भुवि संसारमें (को वा) कौन पुरुष आश्रयंती श्रियं) अपने आश्रयको प्राप्त होनेवाली लक्ष्मीको (पादेन ताड़येत्) चरणोंसे ताड़न करता है अर्थात् लात मारता है (च) और (तेदैन्यात् ) उस सेठकी दीनता पूर्वक प्रार्थनासे (कन्यायाः) कन्याके (करपीडां) विवाहको (अन्वमन्यत) अपने साथ करना स्वीकार किया ॥५०॥ अथ भद्रतरे लग्ने सुभद्रेण समर्पिताम् । क्षेमश्रियं पवित्रोऽय तुपयेमे यथाविधि ॥५१॥ ___अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर (अयं पवित्रः) इन पवित्र जीवंधर स्वामीने (भद्रतरेलग्ने) शुभ लग्नमें (सुभद्रेण समर्पिताम् ) सुभद्रसेठसे दी हुई (क्षेमनियं) क्षेमश्री नामकी कन्याको (यथाविधि उपयेमे) विधि पूर्वक व्याहा ॥ ५१ ॥ इति श्रीमद्वादीभसिंह सूरि विरचिते क्षत्रचूडामणो सान्वयार्थो क्षेमश्री
लम्भो नाम षष्ठो लम्बः ।।