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क्षत्रचूड़ामणिः। १९ अन्वयार्थः-(च) और (लोकद्वयहितं अपि ) इस लोक और परलोकमें हितको करनेवाली भी ( असताम् ) दुर्जन पुरुषोंकी ( वस्तु ) वस्तु ( सुकरं न ) सुखके देनेवाली नहीं है। अत्रनीतिः (हि) निश्वयसे (नादेयं जलं) नदीका मीठा जल (लवणाब्धि गत) लवण समुद्रमें गया हुआ ( विफलं स्यात् ) निरर्थक हो जाता है ॥ १० ॥ इत्यूहान्नावमारुह्य प्रतस्थे स वणिक्पतिः। वाधिमेव धनार्थी किं गाहते पार्थिवानपि ॥११॥ ____ अन्वयार्थः-(इति उहात) ऐसा विचार कर (सः वणिक पतिः) वैश्यों में प्रधान उस श्रीदत्तने ( नावं आरुह्य ) नावमें बैठ कर (प्रतस्थे) प्रस्थान किया अत्र नीतिः (धनार्थी कि) धनके इच्छुक क्या (वार्धिमेव) समुद्रको ही (गाहते) अवगाहन करते हैं ?। ऐसा नहीं ( किन्तु पार्थिवानपि गाहते ) किन्तु पृथ्वीमें रहनेवाले खानि आदिक जो बिल हैं उनको भी अवगाहन करते हैं। पक्षान्तरमें बड़े २ पृथवीके राजाओंको भी प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥ दीपान्तरान्यवर्तिष्ट पुष्टः सांयात्रिको धनैः।। अतयं खलु जीवानामर्थसंचयकारणम् ॥ १२॥ ___ अन्वयार्थः-कुछ कालके पश्चात् (धनैः पुष्टः सांयात्रिका) धनसे पुष्ट वह नौकाका स्वामी श्रीदत्त सेठ (द्वीपान्तरात् न्यवर्तिष्ट) दूसरे द्वीपसे धन कमा कर लौटा । अत्र नीतिः (खलु) निश्चयसे ( जीवानां अर्थसंचय कारणम् ) मनुष्योंके धन कमानेका कारण (अतयं) तर्कना रहित है अर्थात् पहलेसे विचार नहीं कर सकता कि हमको अमुक व्यापार में कितना लाभ होगा ॥ १२ ॥