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________________ प्रथमोलम्बः । त्यज्यते रज्यमानेन राज्येनान्येन वा जनः । भज्यते त्यज्यमानेन तत्त्यागोऽस्तु विवकिनाम् ॥१९॥ _अन्वयार्थः- (रज्य मानेन राज्येन अन्येन वा जनः) राग विषय कृत राज्य अथवा अन्य वस्तुसे मनुष्य त्यज्यने) छोड़ा जाता है (त्यज्यमानेन) त्याग विषयी कृत वस्तुसे (जनः) मनुष्य (भज्यते) सेवन किया जाता है (ततः) इसलिये (विवेकिनाम् ) विचारवान् पुरुषोंको (तद् ) उसका (त्यागोऽस्तु) त्याग करना ही उचित है। तात्पर्यः--मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है वह वस्तु उसको प्राप्त नहीं होती है किन्तु अनिच्छित वस्तु प्राप्त हो जाती है अतएव महात्मा पुरुष सांसारिक पदार्थोंमें उदासीन ही रहते हैं ॥ ६९ ॥ इति भावनया राजा वैराग्य परमीयिवान् । त्यक्त्वा सडं निजाडु च दिव्यांसंपदमासदत् ॥७॥ अन्वयार्थः----(राजा) राजाने (इति भावनया) इस प्रकारकी भावनासे (परम् ) उत्कृष्ट (वरोग्य) वैराग्य (ईयिवान्) प्रान किया और फिर अन्तमें (सङ्ग) परिग्रह (निजाङ्गं च) और अपने शरीरको (त्यक्त्वा) छोड़कर (दिव्यां संपदं) स्वर्गसंबंधी ऐश्वर्यको (आसदत्) प्राप्त करता भया ॥ ७० ॥ पौराः जानपदाः सर्वे निर्वेदं प्रतिपेदिरे। पीडा ह्यभिनवा नृणां प्रायो वैराग्यकारणम् । ७१॥ _अन्वयार्थः-उस समय (सर्वे पौराः) सारे पुरवासी (च) और
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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