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________________ १७० अष्टमो लम्बः। अङ्ग किं खिद्यसे ज्यायाननुपद्रव एव ते । वयमेव महापापा मध्येदुःखाब्धि पातिताः ॥१८॥ __अन्वयार्थः- (हे अङ्ग ! ) हे वत्स ! ( त्वं ) तू ( किं ) क्यों ( खिद्यसे ) खेद करता है ( ते ) तेरे ( ज्यायान् ) बड़े भाई जीवंधर स्वामी ( अनुपद्रव एव ) सब प्रकारके कष्टोंसे रहित हैं। ( मध्ये दुःखाब्धिः ) किन्तु दुःखरूपी समुद्रके मध्यमें (पातिताः) पडे हुए ( वयम् ) हम सब ( महापापाः ) महा पापी हैं ॥१८॥ प्रतिदेशं प्रतिग्राम प्रतिगृह्मैव मह्यते। विपच्च संपदे हि स्याद्भाग्यं यदि पचेलिमम् ॥ १९॥ अन्वयार्थ:-उनकी तो ( प्रतिदेशं ) प्रत्येक देशमें और (प्रतिग्राम ) प्रत्येक ग्राममें (प्रतिगृह्य एव ) आदर पूर्वक ग्रहण करके ही ( मह्यते ) पूना होती है । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( यदि ) अगर ( भाग्यं ) भाग्य ( पचेलिमम् ) अच्छा है तो ( विपञ्च ) विपत्ति भी ( संपदे ) संपत्तिके लिये (स्यात् ) हो जाती है ॥ १९ ॥ द्रष्टुमिच्छसि चेद्वत्स तं जनं तव पूर्वजम् । किं नु ताम्यसि गम्येत कनु पापा हि भामिनी ॥२०॥ ___अन्वयार्थः-(हे वत्स ! ) हे वत्स ! ( चेत् ) यदि (त्वं) तुम (तव) अपने (तं पूर्वजम् ननम् ) अपने बड़े भाई उन जीवंधर स्वामीको ( दृष्टुं ) देखनेके लिए ( इच्छसि ) इच्छा करते हो तो ( किं नु ) क्यों ( ताम्यसि ) दुःखी होते हो (गम्येत) जाओ ! अर्थात् मैं तुम्हें विद्याके प्रभावसे उनके समीप पहुंचा देती हूं
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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