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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (पापा भामिनी ) मैं पापिनी स्त्री (कनुगभ्येत ) विना पतिकी आज्ञाके कहां जा सकती हूं ॥ २० ॥ इत्युक्त्वा शाययित्वा च शय्यायां साभिमन्वितम्। मामत्रभवती चात्र सपत्रं प्राहिणोदिति ॥ २१ ।। __ अन्वयार्थः -( इति ) इस प्रकार ( उत्तवा ) कहकर (अत्र भवती ) पूज्य भावजने ( आपकी स्त्रीने ) ( मां) मुझको (शय्यायां) सेज पर ( साभिमन्त्रितम् ) मन्त्रपूर्वक (शाययित्वा) सुलाकर (च) और ( सपत्रं ) पत्रसहित (अत्र) यहां (प्राहिणोत्) भेज दिया । ( इति ) ऐसा नंदाढ्यने जीवंधर स्वामी अपने बड़े भाईसे कहा ॥ ११ ॥ अखिद्यत ततः स्वामी सदयैरनुजोदितः । स्नेहपाशो हि जीवानामासंसारं न मुञ्चति ॥ २२ ॥ __अन्वयार्थः- ( सतः ) इसलिये ( स्वामी) जीवंधर स्वामी ( सदयैः ) दयाजनक ( अनुमोदितैः ) छोटे भाई नंदाढ्यके कहे हुए बचनोंसे (अखिद्यत ) अत्यंत दुखी हुए। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( आसंसारं ) जब तक संसार है तब तक ( जीवानां ) प्राणियोंका ( स्नेहपाशः) स्नेहरूपी बन्धन (न) नहीं ( मुञ्चति ) नहीं छूटता है ॥ २२ ॥ गुणमालाव्यथाशंसि पत्रं चायमवाचयत् । चतुराणां स्वकार्योक्तिः स्वमुखान्न हि वर्तते ॥२३॥ _अन्वयार्थः- ( अयं ) फिर जीवंधर स्वामीने (गुणमाला व्यथाशंसि ) गुणमालाकी विरह पीडाका सूचक (पत्रं च) गन्धर्वदत्ताका भेजा हुआ पत्र ( अवाचयत् ) पढा। अत्र नीतिः
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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