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क्षत्रचूड़ामणिः । विद्याविदिनहतान्ता काटता प्रजावली । इत्यालोच्च संस्थाने बोधो मे समजायत ॥ १५॥
अन्वयार्थः-(वियविदितवृत्तान्ताः ) फिर विद्याके बलसे सब वृत्तान्तको माननेवाली (प्रजावली) मेरी भावज (भाषकी गन्धदत्ता)का (कलंकृत्ता) क्या समाचार है (इति) इस प्रकार विचार करके (संस्थाने) योग्य समयमें (मे बोधः) मुझे ज्ञान (समजायत) उत्पन्न हो गया ॥ १५॥ . एवं भाविभक्दृष्ठिशंभरत्वादहं पुनः । प्रजावतीगृहं प्राप्य सविषादवास्थिषम् ॥ १६ ॥
अन्वयार्थः -- ( पुनः ) फिर (एवं) इस प्रकार ( भाविभवदृष्टि शंभरत्वात् ) भाविमें आपके दर्शन रूपी सुखकी आशासे ( अहं ) मैं (प्रजावतीगृहं प्राप्य ) मैं गन्धर्बदत्ताके घर जाकर वहां (पविषादम्) खेद करता हुआ (अवास्थिषम्) बैठगया ॥१६॥ स्वामिनि स्वामिहीनानां कुतः स्त्रीणां सुखासिका। इति वक्तुमुपक्रान्ते हृदयज्ञा तु साभ्यधात् ॥ १७ ॥
अन्वयार्थः-(हे स्वामिनि ! ) हे स्वामिनि ! ( स्वामिहीनानां ) अपने स्वामी ( निजपति ) के बिना ( स्त्रीणां ) स्त्रियोंकी (सुखासिका ) सुखपूर्वक स्थिति ( कुतः ) कैसे ( स्यात् ) हो सकती है ( इति ) इस प्रकार ( वक्तुं ) कहनेके लिये ( उपक्रान्ते ) मैं प्रारम्भ करनेवाला ही था ( तु) कि ( हृदयज्ञा ) हृदयकी बात जाननेवाली उस गन्धर्वत्ताने ( अम्यधालू ) कहा ॥ १७॥