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________________ एकादशो लम्बः । अन्वयार्थ : – (इति) इस प्रकार ( अनुप्रेक्षया) बारह भावनाओंके चिन्तन करने से (अस्य) इन जीवंधर महारानका ( विरक्तता ) वैराग्य भाव (अक्षोभ्य) स्थिर ( आसीत् ) हो गया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( सतां ) सज्जन पुरुषोंकी ( शैली ) किसी कार्यके प्रारम्भ करनेकी प्रवृत्ति ( व्यवस्था स्यात् ) निश्चल हुआ करती है और (अपि) यदि (अत्र साहाय्ये ) इसमें सहायता मिल जाय तो ( किं पुनः वक्तव्यः) फिर कहना ही क्या है ॥ ८१ ॥ विरक्तो राज्यमन्यच्च न तृणायाप्यमन्यत । हस्तस्थेप्यते को वा तिक्तसेवापरायणः ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थः -- ( विरक्तः ) फिर संसारके विषयोंसे विरक्त जीवंधर महाराजने ( राज्य ) अपने राज्यको ( अन्यच्च ) और सब पदार्थोंको (तृणा अपि ) तृणके समान भी ( न अमन्यत ) नहीं समझा । अत्र नीति: ! निश्चयसे ( हस्तस्थे ) हाथमें रक्खे हुए ( अमृतेऽपि ) अमृतके होने पर भी ( को वा ) कौन बुद्धिमान् पुरुष ( तिक्त सेवापरायणः स्यात् ) कड़वी वस्तुके सेवन करने में तत्पर होगा ? कोई भी नहीं ॥ ८२ ॥ ततस्तस्माद्विनिर्गत्य संपूज्य परमेश्वरम् । योगीन्द्रादशृणोडर्ममधीती जिनशासने ॥ ८३ ॥ अन्वयार्थः- (ततः) तदनन्तर ( जिनशासने अधीती ) जैन शास्त्रों के जाननेवाले उन जीवंधर स्वामीने ( तस्मात् विनिर्गत्य ) वहांसे आकर ( परमेश्वरम् संपूज्य ) जिनेन्द्र भगवानकी पूजा कर ( योगीन्द्रात ) किसी ऋद्विधारी मुनिसे ( धर्मं अशृणोत ) धर्म श्रवण किया || ८३ ॥ २५४
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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