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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २०५ अन्वयार्थः – (अथ ) इसके अनंतर (अयं) यह जीवंधर कुमार (गंधोत्कटेन सह ) गंधोत्कटके साथ ( मंत्रयित्वा ) सलाह करके ( ततः ययौ ) वहां से चले गये ( अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे (पण्डिताः ) विद्वान पुरुष (विधित्सिते) करनेके लिये इच्छित कार्य के (अनुत्पन्ने) पूर्ण नहीं होने तक (न विरमंति) विश्राम नहीं लेते हैं ॥ ६ ॥ विदेहाख्ये ततो देशे धरण्यास्तिलकोपमाम् । तिलकान्तधरण्याख्यां राजधानीमशिश्रयत् ॥ ७ ॥ अन्वयार्थः—— (ततः) वहांसे चल कर जीवंधर कुमार विदे. हाख्ये देशे ) विदेह नामके देश में (तिलकोपमाम् ) तिलकके समान ( तिलकांतचरण्याख्यां ) धरणीतिलक नामकी (राजधानी) राजधानीको (अशिश्रयत् प्राप्त हुए ॥ ७ ॥ महितो मातुलेनात्र विदेहाधिपभूभुजा । भागिनेयो महाभागो मह्यां केन न मह्यते ॥ ८ ॥ अन्वयार्थः – (अत्र) यहां (विदेहाधिपभूभुजा) विदेह देशके स्वामी राजा इसके (मातुलेन) मामाने (महितः ) इनका बड़ा आदर सत्कार किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (मह्यां) पृथ्वी में ( महाभागः ) भाग्यशाली (भागिनेयः) अपनी बहिन के पुत्रको (केन न मह्यते) कौन नहीं पूजता है अर्थात् - सब पूजते हैं ॥ ८ ॥ आसीद्गोविन्दराजोऽपि तद्राज्यस्थापनोद्यतः । स्वयं परिणतो दन्ती प्रेरितोऽन्येन किं पुनः ॥ ९ ॥ अन्वयार्थः - (गोविंदराजः अपि) गोविंदराज भी (तद्राज्यस्थापनोद्यतः) जीवंधर स्वामीके गये हुए राज्यको फिरसे स्थापन
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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