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क्षत्रचूड़ामणिः ।
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बाले महान भाग्यके उदयसे ( हस्तग्राहं गृहात् इव) हस्तावलम्बन देकर गृहण किये हुएके सदृश (अजीवन् ) जीवित रहे ॥ ३७ ॥ साश्वासाश्च ततो देव्या दत्तहस्तावलम्बनाः । प्रास्थिष्महि धुरं प्राप्ता वयमश्वीयपाणिनाम् ||३८|| अन्वयार्थः - (ततः) फिर (देव्या) देवी गन्धर्वदत्ताने (दत्तहस्तावलम्बना: ) अपने हाथोंका सहारा देकर (साश्वासाश्च) आश्वासन दिया । तब ( वयं ) हम लोग ( अश्वीयपाणिनाम् ) घोड़ों के बेचनेवालोंके (धुरं प्राप्ता) मुखिया होकर ( प्रास्थिष्महि) वहांसे चल
दिये ॥ ३८ ॥
अतिलक्ष्य ततोऽध्वानमध्वश्रमविहानये । दण्डकारण्यविख्यातं तापसः श्रममाश्रिताः ॥ ३९ ॥
अन्वयार्थ : - ( ततः ) इसके अनंतर (अध्वानं अतिलध्य ) बहुतसा मर्ग तै करके ( अध्वश्रमविहानये) मार्गकी थकावट दूर करने के लिये ( दण्डकारण्यविख्यातं ) दण्डकारण्य में प्रसिद्ध (तापसाश्रमम् ) तपस्वियों के आश्रम में (आश्रिताः ) पहुंचे ॥ ३९ ॥ ददर्श ततो दृश्यं विहरन्तोऽत्र विश्वतः । अपश्याम कचित्कांचित्पुण्यतः पुण्यमातरम् ॥४०॥
अन्वयार्थः - ( अत्र ) यहां (विश्वतः ) चारों ओर ( दृश्यं) मनोहर वस्तुओंको (दर्श दर्श) देख देख कर ( विहरन्तः ) विहार करते हुए (वयं) हम लोगोंने ( क्वचित् ) किसी स्थान में (पुण्यतः ) पुण्योदय से (कांचित ) किसी (पुण्यमातरम् ) पवित्र माताको अर्थात् आपकी माताको (अपश्याम) देखा ॥ ४० ॥