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क्षत्रचूड़ामणिः ।
१४३ अन्वयार्थः-(वैयावृत्यं) वैयावृत्ये (सप्रोषधोपवासेन) प्रोषधोपैवास सहित (सामायिकेन) सामायिक (च) और (देशावकाशिकेन) देशावकाशिक व्रतके साथ (शिक्षकम् व्रतं स्यात् ) यह चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं । २५ ॥ परिच्छिन्नदिशि प्राप्तिं त्यागं निष्कल दुष्कृतेः। . मितान्नाच्यादिकत्वं च कृत्यं विडि गुणवते ॥२६॥
___ अन्वयार्थः-(गुणव्रते) गुणव्रतमें (परिच्छिन्नदिशि प्राप्ति) मर्यादित दिशाओं में जाना (निप्फलदुष्कृतेः) और निष्प्रयोजन पापोंका (त्याग) त्याग (च) और (मितान्नस्त्रयादिकत्वं) परमित अन्न स्त्री आदि भोगोपभोग पदार्थोंका सेवन (इतिकृत्यं) यह तीन कार्य (विद्धि) जानो ॥ २६ ॥ सञ्चारस्थावधिर्नित्यं सचिह्ना चात्मभावना । दानाद्यैरुपवासश्च पर्वादिष्वन्यतः कृती ॥ ७॥
अन्वयार्थः-(अन्यतः) शिक्षा व्रतमें (सच्चारस्य नित्यं अवधिः) गमनकी नित्य मर्यादा करना, (सचिन्हा आत्मभावना) सब जीवोंमें समतादि भावों सहित आत्माका चिंतवन करना (च) और (दानाद्यैः) मुनि दानादि सहित (पर्वादिषु उपवासः) अष्टमी चतुदशी आदि पर्वके दिनोंमें उपवास करना ही (कृती) कृत्य जानो ॥२७॥ अणुव्रती व्रतैरेतैः कचिद्देशे कचित्क्षणे । महाव्रती भवेत्तस्माद्ग्राह्य धर्ममगारिणाम् ॥२८॥
__ अन्वयार्थः- ( अणुव्रती ) अणुव्रती श्रावक (एतैः व्रतैः) इन बारह व्रतोंमे (कनिदेशे) किसी देश (कचित्क्षणे, व किसी