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________________ १४४ सप्तमो लम्बः । समय में ( महाव्रती भवेत् ) उपचार से महाव्रती हो जाता है ( तस्मात् ) इस लिये ( अगारिणां धर्मग्राह्म) गृहस्थां के धर्मको धारण करना चाहिये ॥ २८ ॥ इत्युक्तः प्रत्यगृहाच्च स धर्म गृहमेधिनाम् । कः कदा कीदृशो न स्याद्भाग्ये सति पचेलिमे ॥ २९ ॥ अन्वयार्थः--( इत्युक्तः स ) इस प्रकार उपदेशित उस किसानने ( गृहमेधिनाम् धर्म प्रत्यगृह्णाच्च ) गृहस्थों के धर्म को स्वीकार किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्रवसे (भाग्ये पचेलिमे सति) उत्तम भाग्यके उदय होनेपर (कः ) कौन (कदा) किस समय ( कीदृशः न स्यात् ) कैसा नहीं हो जाता है || २९ ॥ अत्यादरान्नि जाहार्यममु दानविद्ददौ । नादाने किंतु दाने हि सतां तुष्यति मानसम् ॥३०॥ अन्वयार्थः -- ( दानवित् । दान देनेके जानने वाले उन जीवंवर कुमारने ( अति आदरात् ) अत्यंत आदरसे ( अमुष्मै ) इसके लिये ( निवाहाची ददौ ! अपने आभूषणों को दे दिया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( सतां मानसम् ) सज्जन पुरुषों का हृदय ( दाने तुप्यति ) दूसरों को दान देने में ही संतोषित होता है (किन्तु आदाने न ) दूसरेसे दान लेने में संतोषित नहीं होता है | ३० | अकल्पलाभाच धर्मलाभाच पिप्रिये । तादात्विक सुखप्रीतिः संवृतौ हि विशेषतः ॥३१ ॥ अन्वयार्थः – ( सः ) वह किसान ( अनयकलालाभात् ) बहु मूल्य आभूषणों के लाभसे (च ) और ( धर्म लाभात् ) धर्मके
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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