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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । लाभसे (पिप्रिये ) अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (संसृतौ.) संसारमें जीवोंको ( तादात्विकसुख प्रीतिः) तात्कालिक विषय सुखोंकी प्रीति (विशेषतः भवति) विशेष रीतिसे होती है ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-संसारमें जीवोंको विषय सुख मिलने पर उस समय बहुत आनन्द होता है ॥ ३१ ॥ तं विमृज्य ततः स्वामी तस्य स्मृत्वैव निर्ययौ । प्रत्यक्षे च परोक्षे च सन्तो हि समवृत्तिकाः ॥३२॥ अन्वयार्थः---( ततः ) इसके अनंतर ( स्वामी ) जीवंधर स्वामी ( तं विसृज्य ) उसको छोड़कर (तस्य स्मृत्वा एव) उसका स्मरण करते हुए ही वहांसे ( निर्ययौ) चल पड़े। अत्र नीतिः (हि ) निश्चयसे ( सन्तः ) सज्जन पुरुष ( प्रत्यक्षे ) सम्मुख (च) और परोक्षे) पीठ पीछे दोनों अवस्थाओंमें ( समवृत्तिकाः भवंति) एकसा व्यवहार करनेवाले होते हैं ॥ ३२ ॥ अधारण्ये कचिच्छान्तो निषण्णो निरुपद्रवः । शरण्यं सर्वजीवानां पुण्यमेव हि नापरम् ॥ ३३ ॥ __ अन्वयार्थः- ( अथ ) इसके अनंतर (श्रान्तः ) थके हुए (क्वचिद् अरण्ये) किसी वनमें (निरुपद्रवः) उपद्रव रहित (निषण्णः ) होकर बैठ गये। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (पुण्यं एव सर्व जीवानां ) पुण्य ही सब जीवोंका (शरण्यं) रक्षक है ( अपरं न ) और कोई नहीं ॥ ३३ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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