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________________ सप्तमो लम्बः । तत्र चैकाकिनी रामां पश्यन्नासीत्पराङ्मुखः । अपदोषानुषङ्गा हि करणा कृतिसंभवा ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थः--(तत्र च ) और उस वनमें जीवंधर कुमारने ( एकाकिनी रामां) अकेली एक स्त्रीको ( पश्यन् ) देख कर (पराङ्मुखः आसीत् ) उधरसे मुंह फेर लिया । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चयसे (कृतिसंभवा ) विद्वानोंसे उत्पन्न (करुणा) दया ( अपदोषानुषङ्गा ) दोषोंके संबंधसे रहित होती है । भावार्थ-जिसमें किसी भी दोषकी आशङ्का न हो ऐसी दया विद्वान् लोग किया करते हैं ॥ ३४ ॥ सा तु जाता वृषस्यन्ती वृषस्कन्धस्य वीक्षणात् । अप्राप्ते हि रुचिः स्त्रीणां न तु प्राप्ते कदाचन ॥३२॥ अन्वयार्थः- ( सा तु ) और वह भी (वृषस्कंधस्य) बैलके समान श्रेष्ठ कंधेवाले पराक्रमी स्वामीके ( वीक्षणात् ) देखनेसे (वृषस्यन्ती जाता कामसे पीड़ित हुई। . अर्थात्-उनसे विषय भोग करनेकी इच्छा करने लगी। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (स्त्रीणां रुचि:) स्त्रियोंकी प्रीति (अप्राप्ते स्यात) अप्राप्त पुरुषमें ही होता है (प्राप्ते) प्राप्त पुरुषमें (कदाचन न) कभी भी नहीं होती ॥ ३५ ॥ अश्वस्यन्ती विभाव्यैनामाकूतज्ञो व्यरज्यत । अनुरागकृदज्ञानां वशिनां हि विरक्तये ॥३६॥ अन्वयार्थः--(आकृतज्ञः) परके अभिप्रायको जाननेवाले जीवंधर कुमारने (एनां अश्वभ्यन्ती) इमको पर पुरुषाभिलाषिणी
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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