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क्षत्र चूड़ामणिः ।
१४७ ( विभाव्य ) जानकर (व्यरज्यत) उससे विरक्त होगये । अत्र नीतिः (हि) निश्चय से (अज्ञानां) मूर्ख पुरुषों के ( अनुरागकृत् वस्तु) अनुराग करनेवाली वस्तु ( वशिनां ) जितेन्द्रिय पुरुषोंके (विरक्तये) विरागके लिये (भवति) होती है ॥ ३६ ॥
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पृथक्चेदङ्गनिर्माणं चर्ममांसमलादिकम् | सजुगुप्सेऽत्र तत्पुत्रे मूढात्मा हन्त मुह्यति ॥३७॥ अन्वयार्थः - (चेत् ) यदि (अङ्गनिर्माणं पृथक् स्यात् ) शरीरकी रचना ष्टथक् पृथक् होवे तो फिर (चर्ममांसमलादिकम् ) चपड़ा, मांस और मलादिकको ( विहाय ) छोड़कर ( अन्यत् ) और कुछ भी ( अवशिष्टं न भवेत् ) शेष न रहे । ( हन्त ?) बड़े खेदकी बात है ? कि तौ भी ( मूढात्मा) मूर्ख अज्ञानी पुरुष (सजुगुप्से) घृणा सहित (तत्पुञ्जे अत्र) चमड़ा और मांसादिकके ढेर रूप इस शरीर में (मुह्यति) मोहित होते हैं ॥ ३७ ॥ दुर्गन्धमलमांसादिव्यतिरिक्तं विवेचने | नेक्षते जातु देहेऽस्मिन्मोहे को हेतुरात्मनाम् ||३८|| अन्वयार्थः -- (विवेचने सति) भली भांति विचार करने पर ( अस्मिन् देहे ) इस शरीर में ( दुर्गन्धमलमांसादिव्यतिरिक्तं ) दुर्गन्ध मल मांसादिकके सिवाय (जातु न ईक्षते) और कुछ कभी भी दिखाई नहीं देता ( तथापि ) तौ भी ( आत्मनाम् ) जीवोंका (अस्मिन् मोहे) इसके अंदर मोह है इसमें (क: हेतुः ) क्या हेतु है ॥ ३८ ॥ अज्ञानमशुचेर्बीज ज्ञात्वा व्यूहं च देहाय । आत्माव सस्पृहो वक्ति कर्माधीनत्वमात्मनः ॥ ३९ ॥