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अष्टमो लम्बः ।
अन्वयार्थः-(ततः) तदनंतर ( देववैभवसंकीर्त्या ) आपके वैभवकी महिमाके वर्णनसे (देवी) माताको (पुनः पुनः) बार बार ( आश्वास्थ ) धीरज बंधा कर (च) और ( आप्टच्छय ) पूछकर ( तद्देशात् ) उस स्थानसे (इमं देशं) इस देशको (गताः) आये हैं (इति) ऐसा पद्मास्यने कहा ॥ ४७ ॥ मातुर्जीवन्तृतिज्ञानात्तत्त्वज्ञः सोऽप्यखिद्यत । जीवानां जननीस्नेहो न ह्यन्यैः प्रतिहन्यते ॥ ४८ ॥ ____ अन्वयार्थ:-(सतत्वज्ञः) तत्वोंका स्वरूप जाननेवाले उन जीवंधरने (मातुः) माताको ( जीवन् ) जीती हुईको भी (मृतिज्ञानात् ) मरी हुई जाननेसे ( अखिद्यत ) अत्यन्त खेद किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (जीवानां). प्राणियोंका (जननी स्नेहः) मातृप्रेम (अन्यैः) दूसरे कारणोंसे ( न प्रतिहन्यते ) नष्ट नहीं होता है ॥ १८ ॥ अत्वरिष्ट च तां द्रष्टुं कौरवो गुरुगौरवः। अम्बामदृष्टपूर्वी च द्रष्टुं को नाम नेच्छति ॥ ४९॥
अन्वयार्थः- (गुरुगौरवः) माता और पितामें है पूज्य बुद्धि जिनकी से ( कौरवः ) कुरुवंशी जीवंधर कुमारने (तां द्रष्टुं ) अपनी प माताको देखने के लिये (अत्वरिष्ट) शीघ्रता की । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (को नाम) कौनु पुरुष ( अदृष्टपूर्वी) नहीं देखा है पूर्वमें जिसको ऐसी (अम्बां) माताको (द्रष्टुं) देखनेके लिये (न इच्छनि) इच्छा नहीं करता है ? करता ही है ॥४९॥ व्यसा मातरि महान्मान्येनान्यदशेषतः। रागद्वेषादि तेनैव बलिष्ठन हि बाध्यते ॥५०॥