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क्षत्रचूड़ामणिः ।.
१८१ अन्वयार्थः-(मान्येन) माननीय जीवंधर कुमार (मातरिस्नेहात) अपनी माताके स्नेहसे ( अन्यत्) अन्य सबको (अशेषतः) सर्वथा (व्यस्मारि) भूल गये । अत्र नीतिः । (हि। निश्चयसे (तेननैव बलिष्टन) उस बलवान स्नेहके द्वारा ही ( रागद्वेषादि) रागद्वेष आदि विकार भाव (बाध्यते) नष्ट कर दिये जाते हैं ॥ १० ॥ अन्बजिज्ञपदात्मीयां गति भार्या परानपि । आवश्यकेऽपि बन्धूनां प्रातिकूल्यं हि शल्यकृत् ।।५१॥ ___अन्वयार्थः-उन जीवंधर कुमारने ( भार्या ) अपनी स्त्री
और (परानपि) अन्य पुरुषोंसे भी (आत्मीयां गतिं) अपने जानेकी बात (अन्वनिज्ञपत्) प्रा.ट कर दी। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (आवश्यके अपि) आवश्यक कार्य में भी (बन्धूनां) बन्धुओंकी (पातिकूल्प) प्रतिकूलता (शल्यकृत् ) दुख देनेवाली होती हैं ॥११॥ अनुनीयानुगान्वन्धून्प्रसभं प्रययौ ततः। अनुनयो हि माहात्म्यं महतामुपबृंहयेत् ॥५२॥
अन्वयार्थः-(सः जीवंधरः) वे जीवंधर कुमार (अनुगान्) साथ चलनेवाले (बन्धून्) अपने सालोंको (अनुनीय) समझा बुझा करके (ततः) वहांसे (प्रसभं) शीघ्र ( प्रययौ ) चल. दिये। अत्रनीतिः । (हि) निश्चयसे (अनुनयः) दूसरोंको समझाने बुझाने ही से (महतां) बड़े पुरुषोंका (माहात्म्यं) बड़प्पन (उपवृंहयेत् ) बढ़ता है ॥ १२ ॥ प्रसवित्री ततः प्रेक्ष्य प्रेमान्धोऽभूदवन्ध्यधीः । तत्त्वज्ञानतिरोभावे रागादि हि निरङ्कशम् ।। ५३ ॥