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६.त्रचूड़ामणिः । - अन्वयार्थः- "( हन्त ! हन्त ! ) हाय ! हाय ! (हे अम्ब!) हे माता ! (अयं) यह जीवंधर (न हतः) मारे नहीं गये” जब (मया) मैंने (इति) इस प्रकार (अभिहिता) कहा तब (पिहिता सु. प्रयाणा) रुक गया है प्राणोंका निकलना निसका ऐसी (लब्ध. चेतना) सचेत होकर (सा) वह माता ( प्रालपत् ) प्रलाप करने लगी ॥ ४४ ॥ अम्भोदालीव दम्भोलीममृतं च मुमोच सा। देवी समं प्रलापेन देवोदन्तमिदन्तया ॥ ४५ ॥
अन्वयार्थः-(अम्भोदाली) मेघोंकी पति (इव) जिस प्रकार (दम्भोली) वज्रपात (च) और (अमृ) जलको (मुमोच) वर्षाती है उसी प्रकार (सा देवी) उस माताने (प्रलापेन समम्) प्रलापके साथ (देवोदन्तं) आपके वृत्तान्तको (इदंतया) इस रीतिसे (अकथयत्) कहा । अर्थात-आपकी उत्पत्ति आदिककी वीती हुई सब कथा उसने खेदके साथ हम लोगोंको सुनाई ॥ ४५ ॥ तन्मुखात्खादिवोत्पन्नां रत्नवृष्टिं तवोन्नतिम् । उपलभ्य वयं लब्धाममन्यामहि तन्महीम् ॥ ४६॥
___ अन्वयार्थः-( तन्मुखात् ) उसके मुखसे (तव उन्नतिम् ) आपकी उन्नतिको (खात् ) आकाशसे ( उत्पन्नां ) बरसती हुई (रत्नवृष्टिं) रत्नोंकी वर्षाके (इव) समान (उपलभ्य) सुनकर (वयं) हमलोग (तन्महीं) उप्त पृथ्वीको (लब्धां) हाथमें आई हुई (अमन्यामहि) मानते भये ॥ ४६॥ देववैभवसंकी| ततो देवीं पुनः पुनः। आश्वास्यापृच्छय तद्देशादिमं देशं गता इति ॥४७॥