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क्षत्रचूड़ामणिः । अन्ययार्थः--(संयुक्तानां) संयोगी पदार्थोंका ( नियोगतः ) अवश्य ही (वियोगः) वियोग (भविता) होता है। (अन्यैः किं) और तो क्या ? (अङ्गतः) इस शरीरसे ( अङ्गी अपि ) आत्मा भी (निः संगो निवर्तते) शरीरको छोड़कर चला जाता है ।। ५.॥ अनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता। सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना ॥ ११ ॥
अन्ययार्थः-(संसारे ) संसारके ( अनादौ सति) अनादि होनेपर (कस्य) किसकी (केन) किसके साथ (बन्धुता शत्रुता च न) मित्रता और शत्रुता नहीं है अतएव किसीको ( सर्वथा शत्रु भावः मित्रभावश्च) सर्वथा शत्रु व मित्र समझना (सर्वमेतद्कल्पना) ये सब कल्पना मात्र ही है ॥ ६१ ॥ इति धर्य वचस्तस्या लेभे नैव पदं हृदि । दग्धभूभ्युप्तबीजस्य न ह्यकुरसमर्थता ॥६२॥
अन्वयार्थः--(इति) इस प्रकार (धर्म्यवचः) नीति युक्त वचनोंने (तस्याः) उस विजया रानीके (हृदि) हृदयमें (पदं) स्थानको (नैव) नहीं (लेभे) प्राप्त किया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (दग्धभू म्युप्त वीजस्य) जली हुई पृथ्वीमें बोए हुए बीजके अन्दर (अंकुर समर्थता न भवति) अंकुर पैदा होने की शक्ति नहीं होती है ॥६२॥ अयं त्वापन्नसत्वां तामारोप्य शिखियन्त्रकम् । स्वयं तद्भामयामास हन्त क्रूरतमो विधिः ॥६२॥ __अन्वयार्थः-(त) तदनन्तर (अयं) राजा (आपन्नसत्वां तां) गर्भवती उस रानीको (शिरिवयन्त्रकम् ) मयूर यन्त्रमें (आरोप्य) बिठला करके (हन्त) खेद है ? (स्वयं) अपने आप (तद्) उसको