SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमोलम्बः । सचेत किया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (आति संभवे) पोड़ाके होने पर (विपत्ति कालमें) (विदुषां) विद्वानोंका (तत्वज्ञानं जागयेव) सच्चा ज्ञान जागृत ही रहता है ॥ ५७ ॥ शोकेनालमपुण्यानां पापं किं न फलप्रदम् । दीपनाशे तमोराशिः किमाह्वानमपेक्षते ॥ ५८ ॥ अन्वयार्थः- राजा कहने लगा (शोकेन अलम् ) शोक नहीं करना चाहिये ? (अपुण्यानां) पुण्य रहित (पापी पुरुषोंका) (पापं) पाप (किं) क्या ? ( फल प्रदम् न ) फल देनेवाला नहीं होता किंतु (स्यादेव) होता ही है (किं) क्या (दीपनाशे) दीपकके नाश हो जाने पर (तमो राशिः) अन्धकारकी पति (आह्वानमपेक्षते) बुलानेकी अपेक्षा करती है किंतु (नापेक्षते) स्वयं आनाती है ॥२८॥ यौवनं च शरीरं च संपच्च व्येति नाद्भतम् । जलवुद्वदनित्यत्वे चित्रीया न हि तत्क्षये ॥ ५९॥ अन्ययार्थः- (यौवनं) जोवन (च) और (शरीरं) शरीर (च) और (सम्पत् ) धन ये सब (व्येति) नाशको प्राप्त होते हैं (अत्र अद्भुतं न) इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं ? (जलबुद्बदनित्यत्वे) पानीके वुल वुलेके बहुत देर तक ठहरनेमें (चित्रिया) आश्चर्य है (हि) निश्चयसे (तत्क्षये चित्रियान) उसके नाश होनेमें कोई अ-5 चरज नहीं है इसी प्रकार सांसारिक वस्तुके ठहरनेमे आश्चर्य है उसके क्षयमें नहीं ॥ ५९॥ संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः। ' किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसङ्गो हि निवर्तते ॥६० ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy